बार बार मिलते धोखे और दर्द ही दिखाने लगते हैं सही राह
मोहाली: 04 जुलाई 2023: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::
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चार जुलाई 2018 को पोस्ट की थी रमिंदर कौर ने इस ख्याल की यह तस्वीर-फेसबुक ने आज फिर पाठकों के सामने ला रखा |
शायद यही है ज़िंदगी। यही है उस माया की माया जिसके चलते अच्छे अच्छे सन्यासी और साधक भी किसी न किसी भ्रम में आ ही जाते हैं। यही है भगवान का खेल जिसमें जीतना भगवत इच्छा के बिना सम्भव ही नहीं होता। वह चाहत भी पैदा करता है-फिर कभी कभार उसकी झलक भी दिखला देता है-और हम कह उठते हैं---तुझमें रब दिखता है--यारा मैं क्या करूं--!
फिर भी उसकी लीला नहीं रूकती। जिसमें हम अपने ही भरम-जाल के करण भगवान को देखने लगते--फिर धीरे धीरे उसकी हकीकत भी सामने आने लगती है। नकली रंग उतरने लगते हैं और असली रंग नज़र आने लगते हैं। स्वार्थ, लालच और अवसरवादिता के अर्थ भी सामने आने लगते हैं। इंसानी फितरत में गिरगिट के रंग बदलने की कला नाकाम हुई लगने लगती है। फिर विशेष अच्छे लोग भी मिलते हैं जिनमें हमें दुनियादारी की यह बुराइयां बिलकुल भी नज़र नहीं आती। वही लगने लगता है असली नायक या नायका। फिर कई बार कल्पना के इस विशेष व्यक्ति से मिला भी देता है। कई बार बेहद नज़दीक जा कर ही बात समझ आती है और कई बार छोटी सी किसी मुलाकात के बाद। वही भेंट जब अतीत बन चुकी होती है तब महसूस होता है इसकी तो तलाश थी। जब प्रेम बढ़ने लगता है तो फिर अचानक कोई बहाना बनता है और वह उसी से ही बेहद दूर भी कर देता है। याद आने लगती हैं फिल्म साथ साथ के एक लोकप्रिय गीत की पंक्तियां: क्यूं ज़िंदगी की राह में, मजबूर हो गये//इतने हुए करीब कि हम दूर हो गये..!
इस गीत को आवाज़ दी थी जानीमानी गायका चित्र सिंह ने और इसे लिखा जावेद अख्तर साहिब ने। इसे संगीत से सजाया था प्रसिद्ध संगीतकार कुलदीप सिंह ने।
इस गीत में जिस दर्द का अहसास होता है दर्द के ज़रिए हमारा अंतर्मन एक्टिवेट होता है और हम धीरे धीरे उसी की चाह करने लगते हैं जो मिल कर कभी न बिछड़े। जिसे मिल कर कभी धोखा न हो। जिसे मिल कर हर पल शाश्वत आनन्द ही रहे। शायद यही दर्द हमें मेडिटेशन और अध्यात्म की राहों पर ले जाता है। हम जिस्मों के आकर्षण से मुकत हो कर कहीं बहुत ऊंची स्थिति में पहुंचने लगते हैं। मोहब्बत और मिलन का यह खेल जिसने भी रचा बहुत दिलचस्प खेल है। किसी भी गणित से ज़्यादा उलझा हुआ खेल। शायद यह ज़रूरी भी है। इस दर्द और तड़प के बिना भी कैसी ज़िंदगी!यह दर्द ही बढ़ता बढ़ता दवा बनने लगता है। इस उलझन को सुलझाने की कोशिशें ही एक दिन भगवान तक पहुंचा देती हैं। भगवान् के रहस्य भी समझाने लगते हैं। शैड तभी कहते हैं इश्क ही खुदा है। मोहब्बत ही भगवान है। --रेक्टर कथूरिया
आखिर में अंजुम रहबर साहिबा की एक प्रसिद्ध गज़ल का शेयर:
मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था
वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था
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