Saturday, January 13, 2024

तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूं, मेरी उम्र भर की तलाश है!

लोहड़ी के पावन पर्व पर बहुत कुछ याद आ रहा है 

खरड़ में नूरविला के एक बेहद ठंडे कमरे में से सभी के नाम एक पत्र 


खरड़: 13 जनवरी 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

लोहड़ी के बहुत से निमंत्रण इस बार भी मिले हैं। आयोजन भी ज़ोर शोर से चल रहे होंगें। इस नूरविला इलाके में जहां इस वक़्त हूं वहां भी अमीरों के एक छोटे से क्षेत्र में लोहड़ी का उत्सव जोशोखरोश के साथ जारी है। आज के आयोजनों में लोहड़ी के पर्व का प्राचीन संदेश तो लुप्त हो चुका है लेकिन हुड़दंग, दिखावा और शोरशराबा जारी है। मैं किसी आयोजन में नहीं गया। बहुत सी उदास और चिंतित करने वाली खबरें सामने हैं। भविष्य क्या होगा समझ नहीं आ रहा। 

इसी बीच "द ट्रिब्यून" समूह के पंजाबी समाचारपत्र पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक डा.सवराज बीर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। प्रगतिशील लोगों और विचारों को समर्पित पत्रकारिता में उन्होंने बहुत कुछ कर के भी दिखाया। इस अख़बार के साथ बहुत से लोगों की भावनाएं भी जुड़ीं लेकिन आज सब कुछ विचार या भावनाएं तो नहीं होतीं। अख़बार की प्रसार संख्या का मुद्दा भी अहम होता है। बहुत देर पहले ही मीडिया संस्थान कारोबारी बन चुके थे। इस सोच के बिना न खर्चे निकल सकते हैं और न ही कलमकारों के वेतन। ऐसे में कारोबारी सोच अपने बिना कैसे चल सकते हैं अख़बार? इस पर चर्चा जारी है। वाम से जुड़े अख़बार भी लम्बे समय से इसी दाबाव में रहे। बहुत से नाम गिरामी लोगों ने बहुत ही कम वेतन में काम किया। अब भी गुज़ारे लायक वेतन देने के लिए सप्लीमेंटों का सहारा मुश्किल हो गया है। पंजाब में जितना तेज़ी से लिखा और प्रकशित किया जा रहा है उतनी तेज़ी से पढ़ने का रुझान नहीं बढ़ पा रहा।  दक्षिण भर्ती के ज़ेह खूबी उत्तर भारत में अब तक बन ही नहीं पाई। प्रगतिशील लोगों ने डा. सवराजबीर को पंजाब के रवीश कुमार बताते हुए इस पर त्यागपत्र पर क्षोभ व्यक्त किया है। इन क्षेत्रों में जहां उदासी भी है लेकिन कुछ लोगों ने एक तरह से ख़ुशी और संतोष का इज़हार भी किया है। ऐसे माहौल में लोहड़ी के त्यौहार पर इस तरह के कई मुद्दे भी ज़हन में घूम रहे हैं। 

इसी बीच प्रसन्नता की खबर भी है कि पंजाबी ट्रिब्यून की समाचार संपादिका डा.अरविंदर कौर जौहल को पंजाबी ट्रिब्यून के नए संपादक के तौर पर नियुक्त कर दिया गया है। वह फ़िलहाल कार्यकारी संपादक रहेंगी। पत्रकारिता की बाकायदा प्रतिभाशाली छात्र रही डा. अरविंदर कौर ने भी अपनी पढ़ाई लिखे के दौरान ही ज़मीनी हकीकतों को बहुत नज़दीक से देख लिया था। इस संचारपत्र समूह में पहली बार किसी महिला का संपादक पद पर आना भी हम सभी के लिए गर्व की बात है। 

फ़िलहाल लौटते हैं लोहड़ी के आयोजनों पर। कुछ मित्रों ने और कुछ जानकारों ने लोहड़ी के सुअवसर पर अपनी शुभकामनाएं ह्बेजी हैं--अपने स्नेह हबरे संदेश भेजें हैं--हर बार की तरह इस बार भी वही पुराना दोहराव ही है...! जवाब भी लिखना चाहा उसी हिसाब से नकली ख़ुशी से भरा जवाब-नकली उत्साह से भरा जवाब पर बात बन ही नहीं रही... ! नकली और बनावटी बातों को सोचते हुए असली दुःख और दर्द फिर सामने आ जाते हैं। कुछ इस तरह से शुरू किया संदेश:

प्रिय मित्रो!

सम्माननीय मित्रो!

आपको  ही इस दिन की हार्दिक बधाई। 

मित्र आज फिर त्यौहार है जबकि ज़िंदगी में त्यौहार आता ही कब है--बस खुद को भूलने का बहाना ही तो है--!

न त्योहारों में अब वो पहले जैसी जान है--न ही मन में कोई उत्साह बचा है। 

उम्र रेत की तरह हाथों से निकलती जा रही है--एक दिन सांस की डोरी भी टूट जाएगी। 

किसी के पास हमारे अंतिम संस्कार में आने का वक्त भी नहीं होगा..!

कुछ लोग खुश भी होंगें और मन ही मन कहेंगे--अच्छा हुआ मर गया साला--!

बस दुनिया की इस हकीकत का बार बार इसी तरह दोहराव ही तो देखा--!

इस दुनिया से श्मशान अच्छा जो हकीकत तो बताता है---!

भगवान शिव का नज़दीकी स्थान शमशान आज भी शांति देता है..!

मन था आज श्मशान में जा कर किसी चिता की आग में इस दुनिया की हकीकत को देखने का फिर से  प्रयास करें लेकिन वहां तक जाने की आज हिम्मत नहीं हो रही!

शायद वही वक्त नज़दीक आ रहा है जब चार लोग मिल कर इस बोझ को वहां तक पहुंचाते हैं..हम जैसे लोगों के लिए शायद वही होता है असली त्यौहार--लोहड़ी हो या दीपावली--!

बाकी ज़िंदगी तो बस उस शायरी जैसी ही है जिसे जनाब कृष्ण बिहारी नूर साहिब ने बहुत ही खूबसूरती से लिखा:

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं!

और क्या जुर्म है-पता ही नहीं!

इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं 

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं 

ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है

दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

जिसके कारण फ़साद होते हैं 

उसका कोई अता-पता ही नहीं 

कैसे अवतार कैसे पैगंबर 

ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं 

ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ

ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं 

सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे 

झूठ की कोई इँतहा ही नहीं 

धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून 

अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं 

चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो

आईना झूठ बोलता ही नहीं 

अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है 

‘नूर’ संसार से गया ही नहीं 

             - कृष्ण बिहारी 'नूर' बहुत पहुंचे हुए शायर रहे आज भी उनका नाम है। 

फ़िलहाल तो लोहड़ी का त्यौहार फिर ऐसे ही हालात में आया है जिसे पंजाबी में कुछ यूं कहा जाता है--

लोहड़ी वाली रात लोकी बालदे ने लोहड़ीयां!

साडी काहदी लोहड़ी--अक्खां सजनां ने मोड़ीयां!

दुनिया तो फरेबों से भरी है इसलिए अब दुनिया से इश्क हो भी तो कैसा हो--चलो फिर से कलम के साथ ही इश्क करें--देश और देश की मासूम जनता के साथ इश्क करें वही बेचारी मासूम जनता जिसे हर चुनाव में हर दल छल कर चला जाता है।  

वही जनता जिसे आज़ादी के सात आठ दशकों के बाद भी कभी निशुल्क इलाज  का लोलीपोप दिया जाता है--कभी निशुल्क बिजली कई--कभी मुफ्त अनाज का--लेकिन कोई उसे उसके पाँव पर खड़ा करने को तैयार नहीं--पत्रकार भी मुफ्त सफ़र और मुफ्त इलाज तक नहीं पा सके। 

आओ इस हालत को बदलने के लिए कलम उठाएं--कलम के धर्म और कलम के फर्ज़ को याद करते हुए कलम से ही कहें--

तेरा इश्क है मेरी आरज़ू, तेरा इश्क है तेरी  आबरू

तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूं, मेरी उम्र भर की तलाश है

           दिल इश्क, जिस्म इश्क और जान इश्क है

           ईमान  की जो पूछो तो  ईमान इश्क है

तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूं, मेरी उम्र भर की तलाश है!

शायद अपने सिर पर कलम के धर्म का जो कर्ज़ है उसे उतरने में कुछ तो सफल हो सकें--!

ज़रा सोचना मित्र>

स्नेह और सम्मान के साथ--

रेक्टर कथूरिया 

जनाब कृष्ण बिहारी नूर जी की झलक देखिए ज़रा यहां साथ ही इस लिंक को भी सुनिए देखिए जनाब--बहुत गहरी बातें हैं..

तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूं, मेरी उम्र भर की तलाश है!

लोहड़ी के पावन पर्व पर बहुत कुछ याद आ रहा है  खरड़ में नूरविला के एक बेहद ठंडे कमरे में से सभी के नाम एक पत्र  खरड़ : 13 जनवरी 2024 : ( रेक्टर ...