Tuesday, July 4, 2023

मिलना और बिछुड़ना सब उसी भगवान का खेल है

बार बार मिलते धोखे और दर्द ही दिखाने लगते हैं सही राह 


मोहाली: 04 जुलाई 2023: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

चार जुलाई 2018 को पोस्ट की थी रमिंदर कौर ने इस ख्याल की
यह तस्वीर-फेसबुक ने आज फिर पाठकों के सामने ला रखा 

शायद यही है ज़िंदगी। यही है उस माया की माया जिसके चलते अच्छे अच्छे सन्यासी और साधक भी किसी न किसी भ्रम में आ ही जाते हैं। यही है भगवान का खेल जिसमें जीतना भगवत इच्छा के बिना सम्भव ही नहीं होता। वह चाहत भी पैदा करता है-फिर कभी कभार उसकी झलक भी दिखला देता है-और हम कह उठते हैं---तुझमें रब दिखता है--यारा मैं क्या करूं--!

फिर भी उसकी लीला नहीं रूकती। जिसमें हम अपने ही भरम-जाल के करण भगवान को देखने लगते--फिर धीरे धीरे उसकी हकीकत भी सामने आने लगती है। नकली रंग उतरने लगते हैं और असली रंग नज़र आने लगते हैं।  स्वार्थ, लालच और अवसरवादिता के अर्थ भी सामने आने लगते हैं। इंसानी फितरत में गिरगिट के रंग बदलने की कला नाकाम हुई लगने लगती है। फिर विशेष अच्छे लोग भी मिलते हैं जिनमें हमें दुनियादारी की यह बुराइयां बिलकुल भी नज़र नहीं आती। वही लगने लगता है असली नायक या नायका। फिर कई बार कल्पना के इस विशेष व्यक्ति से मिला भी देता है। कई बार बेहद नज़दीक जा कर ही बात समझ आती है और कई बार छोटी सी किसी मुलाकात के बाद।  वही भेंट जब अतीत बन चुकी होती है तब महसूस होता है इसकी तो तलाश थी। जब प्रेम बढ़ने लगता है तो फिर अचानक कोई बहाना बनता है और वह उसी से ही बेहद दूर भी कर देता है। याद आने लगती हैं फिल्म साथ साथ के एक लोकप्रिय गीत की पंक्तियां: क्यूं ज़िंदगी की राह में, मजबूर हो गये//इतने हुए करीब कि  हम दूर हो गये..!


इस गीत को आवाज़ दी थी जानीमानी गायका चित्र सिंह ने और इसे लिखा जावेद अख्तर साहिब ने। इसे  संगीत से सजाया था प्रसिद्ध संगीतकार कुलदीप सिंह ने। 

इस गीत में जिस दर्द का अहसास होता है दर्द के ज़रिए हमारा अंतर्मन एक्टिवेट होता है और हम धीरे धीरे उसी की चाह करने लगते हैं जो मिल कर कभी न बिछड़े। जिसे मिल कर कभी धोखा न हो। जिसे मिल कर हर पल शाश्वत आनन्द ही रहे। शायद यही दर्द हमें मेडिटेशन और अध्यात्म की राहों पर ले जाता है। हम जिस्मों के आकर्षण से मुकत हो कर कहीं बहुत ऊंची स्थिति में पहुंचने लगते हैं। मोहब्बत और मिलन का यह  खेल जिसने भी रचा बहुत दिलचस्प खेल है। किसी भी गणित से ज़्यादा उलझा हुआ खेल। शायद यह ज़रूरी भी है। इस दर्द और तड़प के बिना भी कैसी ज़िंदगी!यह दर्द ही बढ़ता बढ़ता दवा बनने लगता है। इस उलझन को सुलझाने की कोशिशें ही एक दिन भगवान तक पहुंचा देती हैं। भगवान् के रहस्य भी समझाने लगते हैं। शैड तभी कहते हैं इश्क ही खुदा है। मोहब्बत ही भगवान है।  --रेक्टर कथूरिया

आखिर में अंजुम  रहबर साहिबा की एक प्रसिद्ध गज़ल का शेयर:

मिलना था इत्तिफ़ाक़ बिछड़ना नसीब था

वो उतनी दूर हो गया जितना क़रीब था

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Monday, August 15, 2022

शांतिनिकेतन में पढ़ने का वो सपना टूट गया

 काश देश के हर गांव में होता एक शांतिनिकेतन

तस्वीरें विश्व भारती से साभार ली गई हैं
लुधियाना: 11 अगस्त 2022: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

रेक्टर कथूरिया 
बचपन के उन दिनों की बात है जब होश संभाला था पर समझदारी अभी नहीं आई थी। पहले गुरुमखी पढ़ना सीखा तो घर में मौजूद बहुत सी किताबों में से जिस  जिस पुस्तक का नाम आकर्षित करता उसे पढ़ने लगता। घर में टैगोर की तस्वीर भी थी, गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की भी, माओ त्से तुंग की भी, चिगवेरा की भी। पहले पहल पुस्तक का नाम पसंद आने पर पढता था फिर तस्वीर भी देखने लगा और इसके बाद पसंद के लेखक भी ज़हन में बैठने लगे। घर के इलावा मुझे पुस्तकें मिलती थीं अमृतसर कामरेड प्रदुमन सिंह के घर में। वहां उनका एक स्कूल भी चलता था जिसकी अलमारियों में बहुत सी पुस्तकें पढ़ी रहतीं। 

मुझे रवींद्रनाथ टैगोर की तस्वीर बचपन में ही बहुत अच्छी लगती थी। जब दार जी मतलब सरदार गुरुबख्श सिंह प्रीत लड़ी जी से पहली बार भेंट हुई तो मैंने उन्हें भी बताया कि आपकी दाड़ी और टैगोर की दाड़ी मुझे बहुत अच्छी लगती है। फिर उन्हीं से पूछने लगा यहां शांति निकेतन कहां है मैं वहां जा कर पढ़ना चाहता था लेकिन यूं ही बड़ा हो गया जिस पर मुझे बहुत अफसोस है। फिर भी देखना तो चाहता ही हूं।  शांति निकेतन अब भी एक सपना ही तो लगता है। मन करता है फिर से बच्चा बन जाऊं और शांति निकेतन में पहुंच जाऊं। लेकिन अगर बचपन में ही ऐसा नहीं हुआ तो अब तो ऊपर जाने की उम्र है। पता नहीं वहां भी शांति निकेतन होगा या सब कुछ यहीं अंतिम संस्कार में खो जाएगा! पर फिर भी बचपन की वह इच्छा याद है जब शांति निकेतन ढूंढ़ना ही महत्थावपूर्ण मिशन था। इसकी इच्छा जवानी तक भी बनी रही। अब भी सोचता हूँ स्कूल हों तो टैगोर की सोच वाले शान्ति निकेतन जैसे ही हों। 

इसी शिद्दत के चलते याद आता है जालंधर में कई दश्क पहले हुआ महिलाओं का एक राष्ट्रीय सम्मेलन। उसी में आए हुए थे सरदार गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी। वहीं पर हुईं थी उनसे आमने सामने वाली पहली मुलाकात। उसी मुलाकात में हुई थीं उनसे कुछ बातें जो मुझे शब्द दर् शब्द याद रहीं। उस बातचीत की आवाज़ मेरे कानों में गूंजती रहती। शज्द इसे किस्मत कहते हैं या बेवकूफी लेकिन आवाज़ गूंजती रहती मैं फिर भी न सुन पाया। अंतर्मन की उस आवाज़ के पीछे निकल पड़ता तो शायद आज कुछ और ही होता। कुछ और अच्छा इन्सान होता। कुछ सफल इंसान बन पाता।  प्रीतलड़ी के ज़रिए दार जी को पढ़ा तो था लेकिन उन्हें देख पहली बार रहा था। उम्र का अंतराल बाहत ज़्यादा था लेकिन इसका अहसास भी नहीं हुआ। रत्ती भर भी नहीं। पूछने लगे प्रीत लड़ी पढ़ते हो? मैंने कहा जी बिलकुल पढता हूँ लेकिन रेगुलर नहीं। बस जब हाथ लग जाए तो पढता हूं। उन्होंने कहा हाथ लग जाए मतलब तो मैंने बात साफ़ की कि हर बार खरीदने के पैसे जेब में नहीं होते। उन्होंने कहा मुझे पत्र लिखना और अपना डाक का पता भेजना। प्रीतलड़ी तुम्हे मिलकरेगी। बेहद ख़ुशी भी हुई और पत्र लिखने का वायदा भी किया लेकिन कभी न लिख पाया। इसके साथ ही पूछने लगे कौन सा अंक अच्छा लगा ?मैंने दो तीन अंक गिनवा दिए। उनकी कवर सटोरियों के हवाले दे कर अपनी बात की पुष्टि करनी चाही कि देखो मैंने सच में पढ़े हैं। यूं ही तुक्का नहीं लगाया। 

उन्होंने मुझे गले लगाया। सिर पर हाथ भी फेरा और कहा प्रीतनगर ज़रूर आओ। अच्छा लगे तो वहीं रहना। तुम्हारी असली जगह वहीं है। सब इंतज़ाम हो जाएंगे। अंतर्मन की आवाज़ सुनो तो यह बहुत सी शक्तियां देती है और मंज़िलों की तरफ जाते रास्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं। मैंने झिझकते हुए कहा लेकिन मुझे तो टैगोर के शांति निकेतन जाना है। वहां तक कैसे जाऊं? उन्होंने कहा वहां आना प्रीत नगर में शांति निकेतन भी ज़रूर मिलेगा। मुझे लगा ज़रूर कहीं आसपास होगा। 

शांति निकेतन की झलक घर में पड़ी पुस्तकों के ज़रिए ही देखी थी। इसी ललक में बहुत देर रहा भी। आखिर यहां तक सोचने लगा कि शायद सभी स्कूल शांति निकेतन जैसे होते होंगें। लेकिन नहीं कोई ऐसा स्कूल नहीं मिला। कुछ और समय गुज़रा तो स्कूलों कालेजों को व्यापारिक स्थलों में तब्दील होते भी देखा। आज के बड़े बड़े स्कूलों का जो रूप नज़र आने लगा है वह रातो रात तो बनते नहीं देखा। इसमें लम्बा समय लगा है। उन दिनों छोटे छोटे स्कूल चलाने वाले बहुत से लोग आजके बड़े बड़े अमीर बन गए। इसके बावजूद शांतिनिकेतन की चाह कभी कम न हुई। आज भी अंतर्मन में एक सपना सा ही है टैगोर वाला शांति निकेतन। उस शांति निकेतन की भावना को बेहद नुकसान ही पहुंचा है मौजूदा कारपोरेटी सिस्टम में। शायद अब कभी साकार नहीं हो पाएगा शांतिनिकेतन या प्रीत नगर! फिर भी लोगों के दिलों बसता ही रहेगा। लेकिन मेरा क्या होगा? शांतिनिकेतन कैसे दिखेगा?

आखिर क्या जादू था शांति निकेतन में न जहां आरम्भ में केवल पांच बच्चे छात्रों के रूप में आए वो भी शायद मुश्किलों से। इस के लिए सात एकड़ की ज़मीन रवीन्द्रनाथ टैगोर आप ठाकुर भी कह सकते हैं अपने पिता से मिल गई थी। उन्होंने इसे मेडिटेशन के लिए खरीदा था। फिर रवींद्र को दे दिया। इस स्कूल में गाँधी जी भी आते रहे और टैगोर की तीखी आलोचना भी करते रहे। आज तो  बहुत नाम है। वहां एक बहुत बड़ी यूनिवर्सिटी बन चुकी है जिसे यूनेस्को भी मान्यता देता है।  

इसे लेकर और भविष्य को लेकर कवि, लेखक, चित्रकार, संगीतकार, शिक्षाविद, नोबेल पुरस्कार विजेता कितने उम्मीद से भरे हुए थे। आशा होना अलग बात हो सकती है लेकिन पूरा विश्वास होना अलग बात है। उन्हें पूरा विश्वास था। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर या टैगोर साहिब ने कभी बहुत ही स्पष्ट कहा था-"मेरी कविताओं, मेरी कहानियों और मेरे नाटकों के भविष्य के फैसले में जो कुछ भी भाग्य हो सकता है, मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि बंगाली जाति को मेरे गीतों को स्वीकार करना होगा, वे सभी मेरे गीतों को हर बंगाली घर में गाएंगे। खेतों और नदियों के किनारे... मुझे ऐसा लगता है कि संगीत मेरे मन की किसी अचेतन गहराई में से उमड़ रहा है, इसलिए इसमें एक निश्चित पूर्णता है।"  जिस जिस को प्रकृति के नज़दीक रहना पसंद है वही उस जगह की महानता और उसमें छिपी तरंगों कर सकता है। वहां जा कर इश्क हो जाना भी स्व्भविक है लेकिन वह इश्क बहुत ही विराट होगा। प्रकृति से इश्क जिसमें डूब कर न उदासी रहेगी न ही निराशा। वहां बेवफाई भी शायद नहीं होगी। वहां धोखा भी शायद नहीं होगा। ऐसा स्कूल देश के हर ज़िले के हर गांव में होना चाहिए था लेकिन हम एशिया कुछ नहीं कर पाए। 

इस महान स्थान का इतिहास आज भी मनमोहक है। इसके बारे में जानें तो मानवमन खो जाता है। उस दुनिया में जो होती तो चाहिए लेकिन कभी हो नहीं पाई। लगता है यहाँ फिर से बता दूँ कि इसका इतिहास बहुत समृद्ध है। बहुत ही महान। 

उस दौर में टैगोर की मानसिक ऊंचाई को समझने की कोशिश करनमि हजो तो इस स्थान के इतिहास को समझना भी ज़रूरी होगा। इसके संस्थापक रवींद्रनाथ टैगोर के जीवनकाल के दौरान विश्व-भारती के विकास का एक अध्ययन, एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है कि इस संस्था को क्या हासिल करना था। रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन में बच्चों के लिए एक स्कूल की स्थापना की और यह इस केंद्र के आसपास था कि एक अपरंपरागत विश्वविद्यालय की संरचना सावधानीपूर्वक योजना के माध्यम से विकसित हुई। इसी मिशन में थे टैगोर के सभी सपने। वे सभी सपने जिन्हें देख कर मुझ जैसों को भी लगता था कि यह हमारे ही सपने हैं। वास्तव में सही बच्चों को ऐसा लगता था। 

बात है सन 1863 की जब वर्तमान संस्था के स्थल पर सात एकड़ के भूखंड पर, कवि के पिता, देवेंद्रनाथ टैगोर ने ध्यान के लिए एक छोटा सा आश्रय स्थल बनाया था, और 1888 में उन्होंने भूमि और भवनों को एक ब्रह्मविद्या की स्थापना के लिए समर्पित भी किया। इसके साथ ही एक पुस्तकालय भी बना

उस दौर में डोनेशन स्कूल दाखिल होने के लिए  नहीं थे। कोई सिफारिशें नहीं थी बस एक मिशन था। रवींद्रनाथ के इस ऐतिहासिक स्कूल ने ब्रह्मचर्यश्रम के तौर पर बाकायदा 22 दिसंबर, 1901 से औपचारिक रूप से काम करना शुरू कर दिया था। समय इस जिसमें पांच से अधिक छात्र नहीं थे।  यह सब आंशिक रूप से, उनके पिता की इच्छाओं की पूर्ति थी, जो शैक्षिक सुधारों के क्षेत्र में अपने समय के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। सन 1925 से इस स्कूल को पाठ भवन के नाम से भी जाना जाने लगा। मुश्किलों और हिम्मतों के साथ एक ज़ोरदार शुरुआत हो चुकी तरही। कौन जनता था इसने एक आंदोलन की तरह भी बन जाना है। 

एक बात और जिसका ज़िकर यहां ज़रूरी है कि यह स्कूल ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत में शुरू की गई व्यवस्था का एक सचेत खंडन थाखुला कर खंडन था। यह कम हिम्मत की बात नहीं थी। रवींद्रनाथ ने शुरू में ही भारत में प्राचीन शिक्षा के आंतरिक मूल्यों को महसूस करने की मांग की थी। ऐसी मांग आवश्यक भी थी। इसका उठना और विस्तारित होना ही देश और दुनिया के लिए अच्छा ठगा। इसलिए, स्कूल और उसके पाठ्यक्रम ने देश के बाकी हिस्सों में शिक्षा और शिक्षण को देखने के तरीके से एक प्रस्थान का संकेत दिया। यह संकेत भी बहुत ही स्पष्ट था। कहा जा सकता है कि उस दौर में एक नई शिक्षा नीति का प्रारूप और प्रस्ताव ही था यह।   

उस समय इसका मिशन कितना उच्च और दूरदर्शी था। इसका अनुमान इसके प्रबंधन  भी लग जाता था। सादगी एक प्रमुख सिद्धांत था। सादगी से डोर होने दुष्परिणाम आज शायद सारी दुनिया देख चुकी है। इसके साथ ही प्रकृति की नज़दीकियां भी थीं। पेड़ों की छाया में खुली हवा में कक्षाएं आयोजित की जाती थीं जहां मनुष्य और प्रकृति ने तत्काल सामंजस्यपूर्ण संबंध में प्रवेश किया। आज के ए सी कल्चर ने हमें क्या दिया यह भी सभी के सामने है। शिक्षकों और छात्रों ने एकल अभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन साझा किया। पाठ्यक्रम में संगीत, पेंटिंग, नाटकीय प्रदर्शन और अन्य प्रदर्शनकारी प्रथाएं थीं। बौद्धिक और अकादमिक गतिविधियों की स्वीकृत सीमाओं से परे, मानव व्यक्तित्व के कई गुना संकायों को मजबूत करने और बनाए रखने के अवसर पैदा हुए। एक नया शिक्षण परिवार पैदा होने लगा था। 

देश के बहुत से हिस्सों में जब आनंदमार्ग ने अपने स्कूल चलाए तो उन स्कूलों में भी मेडिटेशन, कीर्तन, ध्यान और गीत संगीत अहम रहता। इन स्कूलों में बच्चों के पौष्टिक भोजन का भी विशेष ध्यान रखा जाता और एक्सरसाईज़ का भी। योगसाधना का भी और खेलकूद का भी। इस तरह की कोशिशों के बावजूद शांतिनिकेतन की योजना और आगे शायद नहीं बढ़ पाई। फिर कुछ समय पहले किसी ने यह भी कहा कि जिस शांतिनिकेतन  ने  अब वो शांतिनिकेतन कहीं भी नहीं है। शायद कहने वाले सच भी कहा हो फिर भी मेरा मन नहीं मानता  कि जिस भूमि पर मेडिटेशन की जाती रही हो उसके प्रभाव को दुनिया की कोई भी शक्ति इतनी जल्दी कैसे बदल सकती है। लगता है वहां फिर से ऐसे लोगों का आनाजाना बढ़ाना होगा जो उसी तरह के हों। लइकन ऐसे लोग आएंगे कहां से? 

इसके साथ ही यह सवाल मेरे लिए तो आज भी अहम है कि मेरे लिए और मुझ जैसे और बहुत से लोगों के लिए शांतिनिकेतन का यह सपना क्यूं टूटा? आखिर हम सभी का क्या कसूर था? काश हम अपना दर्द टैगोर जी तक पहुंचा पाएं। 

क्या क्या कारण रहे? बहुत सी बातें हैं जिन पर चर्चा जल्द ही होगी। इस मुद्दे पर भी और इस से जुडी दूसरी बातों पर भी। 
कुछ तथ्यों और तारीखों की पुष्टि विश्वभारती से साभार की गई है 

इस आलेख को भी पढ़िए 

चल अकेला गाते गाते चले गए डाक्टर भारत 


Tuesday, May 10, 2022

गुज़रा हुआ ज़माना--आता नहीं दोबारा---हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा--

डाक्टर भारत को यह गाड़ी बहुत पसंद आई थी! 


लुधियाना
: 10 मई 2022: (मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

डाक्टर भारत बहुत ही खास शख्सियत थे। उनके जाने का गम आज तक कम नहीं हो पाया। न जाने हर रोज़ उनके साथ उठने बैठने वाले वे मित्र जिन पर उन्हें सभी से अधिक भरोसा था वही लोग उन्हें कैसे भूल गए हैं। चाईना गेट फिल्म में डाकू लुटेरों के साथ लड़ने वाली जो टीम थी उस टीम की तरह डा. भारत एफ आई बीत की तरह एक जुझारू टीम बनाना चाहते थे। पूरी साहिब, ग्रेवाल साहिब, राजू, सोनू इत्यादि सभी से उनका स्नेह था। चाय का दौर भी चलता और शाम होने पर दारू का दौर भी। बहुत ज़िंदादिल इंसान थे डा. भारत। आज जब डा. भारत के इलाके में मुद्दतों बाद जाने का सुअवसर मिला तो बहुत कुछ याद आया। एक याद इस कार से सबंधित भी थी। 


एक दिन न्यू कुंदनपुरी लुधियाना की गली में
के नए माडल की गाड़ी आई तो उसे डाक्टर भारत ने भी पसंद किया। यही गाड़ी पास ही के एक डेरा प्रमुख को उनके चाहनेवालों ने भेंट की थी। मॉडल नया नया आया था लोग रुक रुक कर गाड़ी देखते थे। इस गाड़ी को नज़दीक से देखने के लिए डा. भारत गाड़ी के पास तक भी आए..मैंने निवेदन किया एक दो फोटो भी खिंचवा लो--तो डा. भारत सहर्ष मान गए। बस 2021 की जाती हुई सर्दियों में उतारी थी यह फोटो। मैंने पूछा क्या सोच रहे हैं आप? कहने लगे ऐसी गाड़ी अपने वाली चाईना गेट टीम के पास भी होनी चाहिए। मैंने मज़ाक से कहा बाबा जी आते ही होंगें उनसे गुजारिश कर लेते हैं वो ज़रूर मान जाएंगे। इतने में उनके फोन की घंटी खनखनाई डाक्टर भारत उधर उलझ गए। मन की बात मन में ही रह गई। चाईना गेट टीम उनके देहांत होते ही बिखर गई। गीत के बोल याद आ रहे हैं--कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन....!  लेकिन कहां वापिस आते है गया हुआ वक्त और गुज़रे हुए लोग! --रेक्टर कथूरिया


Friday, July 16, 2021

जिस तन लागे-सोई जाने और न जाने कोई

कामरेड रमेश रत्न जी भी पत्नी के बाद अधूरे से रह गए हैं  


लुधियाना
:16 जुलाई 2021: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

स्वर्गीय राजरानी 

एक फिल्म आई थी निकाह--शायद 1982 में--सलमा आगा उसमें नायका भी थी और गायका भी--फिल्म इस्लामी विवाह और तलाक पर रौशनी डालते हुए बताती है कि जो अन्याय महिला के साथ होता है--वह बहुत बड़ा है--फिल्म बेशक इस्लामिक जनजीवन पर आधारित थी। मुद्दा तलाक का था लेकिन गैर इस्लामिक क्षेत्रों में भी स्त्री के साथ इस तरह का बहुत सा अन्याय होता आ रहा है रंग रूप और नाम बदल कर। हिंदी फिल्म दामिनी में बहुत कुछ दिखाया गया था। फिल्म निकाह में एक कवाली नुमा गीत था--बोल शायद हसन कमल साहिब के थे। शमा और परवाने के मुकाबिले को दर्शाते हुए शायर शमा की तरफ से लिखता है:

परवाने से पहले जली और परवाने के साथ जली

वो तो जला बस पल दो पल शमा तो सारी रात जली
एक परवाना जला इक कदर शोर मचा
शमा चुपचाप जली लब पे शिकवा न ग़िला
क्या है जलने का मज़ा हुस्न से पूछो ज़रा
क्योंकि
परवाने को जल जाना हम ने ही सिखाया है
वो तब हि जला हम ने जब ख़ुद को जलाया है
आशिक़ की जान इश्क़ में जाने से पेश्तर
ख़ुद हुस्न डूबता है वफ़ा के चनाब में-

वास्तव में हर पत्नी इसी तरह पूरी उम्र भर जलती रहती है। बहुत ही सलीके से।  बहुत ही ख़ामोशी से।  न आस पड़ोस तक किसी त्लकलीफ़ की भनक पहुंचती है और न ही रिश्तेदारों तक। ... और इसी तरह दुःखों की अग्नि में जलते जलते एक दिन चुपचाप विदा हो जाती है। अचानक--बिना कुछ बताये। 

कामरेड रमेश रतन 
---यह सिलसिला आर्थिक तंगियों के कारण कामरेडों के घरों में भी होता है--इक इक सांस मुश्किल से गुज़रती है। घर का गुज़ारा कैसे चलता है, बच्चे कैसे बड़े होते हैं, कैसे पढ़ते हैं इसकी कहानी कोई नहीं जानता सिर्फ उस मां को ही ज़्यादा पता होता है। पिता से भी ज़्यादा पता होता है। यहाँ तक कि अमीर कामरेड भी नहीं जानते कि उनके साथी के घर में चूल्हे की क्या हालत है। 

रमेश रत्न जी आपकी पत्नी ने भी ऐसे बहुत से दिन देखे होंगें और मेरी पत्नी ने भी देखे हैं। अजीब इतफाक कि दोनों ने एक ही तारीख चुनी इस दुनिया से विदा होने के लिए। इससे हमारा दुःख भी हमें एक दुसरे के ज़्यादा नज़दीक ले आया। 

आप ने अपनी पत्नी राजरानी के बारे में लिख कर उसकी खामोश क़ुरबानी को शब्द दिए हैं। हर परिवार को आपका आभारी होना चाहिए। हर सच्चे इन्सान को यह सब लिखना चाहिए। कामरेडों को तो हर हाल में लिखना चाहिए। हम उस क़ुरबानी की चर्चा भी न करें तो यह अनैतिक बात होगी। नमकहराम बनने जैसा होगा। बहुत  बेवफाई होगी। इन्हीं महिलायों से हमेशां हमें शक्ति मिलती रही है।  जब जब भी हम घुटने तक क्र हारने की स्थिति में होते थे तब तब इनकी हिम्मत और प्रेरणा हमें फिर से  थी। इसलिए इनको भी सलाम। आपने बहुत अच्छा लिखा--आपको भी सलाम। बाकी बातें मिलने पर करेंगे ही।
 न उदास होने से कोई लौट कर आता है न ही रोने से लेकिन फिर भी एक सकूं सा मिलता है। शायद यही होता है वो उजाला  जिसके बारे में किसी शायर ने कहा था-
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो!
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम जाए!

इस के साथ ही हम अपने दुःखों की चर्चा कर लेते हैं। अपने ख्वाबों की बात कर लेते हैं। कुछ दुःख तेरे--कुछ दुःख मेरे--बस यही है ज़िंदगी। यही है दुनिया। यही भावना हमें एक दुसरे के नज़दीक ले आती है। 
                                                        -- रेक्टर कथूरिया 

Tuesday, September 8, 2020

बार बार सपनों में आता रहा यह रेलवे स्टेशन

काश रहने का घर भी इसी तरह का बन पाता 
लुधियाना: 8 सितंबर 2020: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::
बहुत से मित्रों और दुसरे लोगों का कहना कही की आखिर इस ब्लॉग का अर्थ क्या है? क्या होगा इसमें? समझना थोड़ा मुश्किल सा लगता है कि इस ब्लॉग का सीधा सा मतलब केवल मेरे अपने मन की संतुष्टि है। लगता है उन बातों को लिखूं जो हमें अपने जन्म के स्रोत की तरफ ले जाएं। उन सभी बातों से बहुत ही अलग और दूर जो हम अपने दैनिक जीवन में किस न किसी मतलब के लिए कहते या सुनते हैं। साड़ी उम्र निकल जाती है लेकिन यही समझने से हम चूक जाते हैं कि हमारा जन्म किस मकसद को लेकर हुआ था। क्या करना था और अब तक क्या किया? 
जन्म हुआ तो जीवन भी मिला। धीरे धीरे बालपन का वह रोना धोना कम होता चला गया। मुस्कराने के बाद हंसी का सिलसिला भी शुरू हुआ। उस समय मालूम नहीं था कि यह मैं नहीं हंस रहा वास्तव में नियति मुझ पर हंस रही है। किस ने सोचा था दुखों के पहाड़ मिलेंगे। किस ने चाहा था कि रास्ते गम के सागरों की तरफ मुड़ते चले जाएंगे। निराशा का अंधेरा छाता चला गया। इस गहन अंधेरे में महसूस होने लगा कि यह कालिमा न होती तो दिन की रौशनी का मज़ा भी नहीं होता। गमों का अहसास ही खुशियों  का मज़ा बढ़ा देता है। यादें उस समय उजाले देने लगती हैं जब हर तरफ अँधेरे छा रहे होते हैं। बस कुछ इसी तरह का ज़िक्र होगा मेरी पोस्टों में। 
मैंने जीवन स्रोत को समझने के लिए यादों का सहारा लिया है। वैसे जाति स्मरण के लिए ओशो तो जहां मेडिटेशन की सिफारिश भी करते हैं। ओशो की बातें अंतर्मन को कुरेदती हैं तो बहुत कुछ जागने लगता है। ऐसा ही कुछ अनुभव होता है अन्य सूफी या मिस्टिक लोगों के साहित्य को पढ़ते हुए। एक बारगी तो लगने लगता है कि हम किसी अज्ञात ऊंचाई पर पहुँच गए। शायद यही अहसास हमें मज़ा भी देता है। थोड़ी देर के बाद जब हम फिर दुनियादारी में भटक जाते हैं तो फिर अचानक झटका लगता है जैसे उस अज्ञात ऊंचाई से अचानक नीचे गिर गए। इस ऊंचाई को छूने, कुछ देर के लिए उस में तै पाने जैसा आनंद भरा अहसास लेने और फिर अचानक नीचे गिर जाने के सदमे.......   
इस ब्लॉग में मैं इस तरह के अहसास की बातें ही करता हूं।  अपने सपनों की बातें करता हूं।  अतीत की बातें और भविष्य की बातें। 
इस बार भी जिस तस्वीर को आपने इस पोस्ट के आरम्भ में देखा उसे क्लिक किया है Unsplash  से जुडी हुई  Linda L Jackson ने। मैं उससे कभी मिल नहीं पाया। बहुत से अन्य लोगों से मिलने का सपना भी 
अभी तक पूरा नहीं हुआ। लिंडा से मिलने की कोशिश जारी है लेकिन उसकी तस्वीरों का मैं दीवाना हूं। 
वह कमाल के विषय चुनती है और बहुत ही अद्भुत ढंग से फोकस बनाती है।  देखो तो बस देखते ही रह 
जाओ। 
यह तस्वीर एक रेलवे स्टेशन की है। इस स्टेशन को मैंने बहुत बार सपनों में देखा। इतना देखा कि इस 
तरह का घर बनाने की एक चाहत मन में पनपने लगी। शायद समझ आने लगी कि यह बातें सपनों में ही
अच्छी लगती हैं। अब इतने बरसों के बाद पता चला कि यह तस्वीर इंग्लैण्ड के नार्थ शायर में साथी एक 
इलाके  नार्थ शायर मूर की है। वहां एक गांव है ग्रोसमोंट। उसी गांव के लोगों को रेल की सुविधा  लिए 
इस रेलवे स्टेशन को 1835 में बनाया गया था। मौजूदा रेलवे स्टेशन 1845 में बना। फिर समय के कई 
उतराव चढ़ाव देखता हुआ यह स्टेशन लोगों को रेल सुविउधा देता रहा। सन 1965 में इसके मुख्य भाग 
को बंद कर दिया गया लेकिन समय की गति कहां रूकती है! सन 1973 में इसे दोबारा खोल दिया गया। 
बहुत से टीवी चैनलों और अख़बारों में भी इस रेलवे स्टेशन की चर्चा हो चुकी है। देखना है कि जीवन रहते इस 
रेलवे स्टेशन को देखा जा सकेगा या नहीं?          -रेक्टर कथूरिया 


Sunday, July 7, 2019

उस देस में.....सोने-चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल

इस गाँव में...प्यार के नाम पर भी धड़कते हैं दिल
 कामरेड गुरनाम सिद्धू साहिब के साथ बैठे हैं एटक के कामरेड विजय कुमार 
न्यू कुंदनपुरी (लुधियाना): 7 जुलाई 2019: (रेक्टर कथूरिया): रात्रि 10:27 बजे:
बचपन में जब यह समझ भी नहीं थी कि प्यार क्या होता है? इश्क क्या होता है? तब से ही यह गीत बहुत अच्छा लगता था। ख़ास तौर पर ये पंक्तियाँ-

उस देस में तेरे परदेस में
सोने-चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल
इस गाँव में, दर्द की छाँव में
प्यार के नाम पर ही धड़कते हैं दिल

एक दिन छुप छुप कर इस गीत के साथ गुनगुनाते हुए पिता जी ने देख लिया। सोचा पिटाई होगी। दांत पड़ेगी लेकिन उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। इस गीत की पंक्तियों के अर्थ भी समझाए। फिर वो ज़माना भी छीन गया। चालीस पचास साल का अंतराल कम से कम छोटा तो नहीं होता। ज़िंदगी थकने लगी। व्यर्थ भी लगने लगी। एक दिन कामरेड गुरनाम सिद्धू साहिब से मिलने ऋषि नगर निकल गया।  
कामरेड गुरनाम सिद्धु साहिब से मिल कर थोड़ी देर पहले ही घर लौटा हूँ। पहले मैं खुद को ही अघोषित पागल समझता था अब लगता है मैं अकेला नहीं हूं, मेरी तरह वह भी हैं। मुझ से भी बड़े पागल। हर वक़्त लुटने लुटाने को तैयार। अपनी पूंजी के नाम पर कुछ बनाना नहीं पर गंवाने की धुन हर वक़्त सिर पर सवार। 
राजकपूर साहिब की किसी फिल्म में एक गीत की पंक्ति थी न: किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार--जीना इसी का नाम है। बस कामरेड गुरनाम सिद्धु बेगाना दर्द ढूँढ़ते ही रहते हैं और बिना किसी बहीखाते के उस दर्द को अपने नाम कर लेते हैं। आज के आधुनिक ज़माने में भी वह बहुत ही पुरानी किस्म के कामरेड हैं जो आजकल नहीं मिलते। दुर्लभ होते जा रहे हैं। 
उनसे मिलने के बाद भी मेरा मन आज ज़्यादा ही उदास है। तन भी डांवाडोल सा। सभी व्यस्त हैं अपने अपने घरों में। आवाज़ भी दूं तो किसको दूं? दे भी दूं तो आएगा कौन? अच्छा है चुप रहा जाये। कम से कम भरम तो बना रहेगा कि वह भी अपना, वह भी अपना। 
जिस जिस का भला करने के लिए अपना नुकसान किया उस उस ने ही समझाया कि तुम बेवकूफ हो। तुम्हे दुनियादारी ही नहीं आती। जिनको पैसे के पहाड़ों पर बैठे देखा वे बेहद कंजूस निकले जो खुद की जान बचाने को भी चवन्नी खर्च न करें। जो कुछ करना चाहते हैं उनका हाथ तंग है। जो थोड़े से लोग कुछ करते भी हैं वे इसके बदले में गुलामों की तरह हर सांस तक खरीद लेना चाहते हैं। उनकी चाहत हैं हम उन्हीं के मुताबिक सोचें, उन्हीं के मुताबिक बोलें, उन्हीं के मुताबिक लिखें। कैसी है ज़िंदगी? कैसी है दुनिया? पैसा ही भगवान है शायद। 
उलझनों में कुछ भी सुलझता नज़र नहीं आता। एक फिल्म आयी थी शायद-श्री 420--उसमें एक गीत था: 

रमैया वस्ता वैया-रमैया वस्ता वैया। 

गीत लिखा था जनाब शैलेन्द्र साहिब ने और आवाज़ें दीं थीं मोहम्मद रफ़ी साहिब, इस युग की महान गायका लता मंगेशकर और दर्द भरी आवाज़ में गाने वाले जनाब मुकेश साहिब जैसे सदाबहार कलाकारों ने। वे सभी कालजयी गायक हैं। फिल्म में इस गीत का सेट लाजवाब था। इस तरह का नज़ारा दोबारा कुछ कुछ नज़र आया था अस्सी के दशक में आए टीवी सीरियल नुक्क्ड़ में। बात चल रही थी फिल्म की। ब्लैक एन्ड वाईट फिल्मों के उस दौर में इस फिल्म श्री-420 का जो रंग था वह अब तक लाजवाब है। इसी गीत में एक पंक्ति आती है:

याद आती रही, दिल दुखाती रही
अपने मन को मनाना न आया हमें।

बस अपनी हालत भी आज कुछ उसी तरह की लग रही है। ..अपने मन को मनाना न आया हमें। क्या करोगे अलमारियों भर पढ़ी किताबों का और साठ को पार कर चुकी उम्र का? सवाल मुंह बाये खड़े हैं। ज़िंदगी जवाब मांगती है और जवाब दे नहीं पा रहे हम।  बस याद आती है यही पंक्ति-अपने मन को मनाना न आया हमें। 
और मन है कि मानता ही नहीं। न जाने क्या करवाएगा।  खैर लीजिये ज़रा सुनिए वह यादगारी गीत:

रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
नैनों में थी प्यार की रौशनी
तेरी आँखों में ये दुनियादारी न थी
तू और था, तेरा दिल और था
तेरे मन में ये मीठी कटारी न थी
मैं जो दुख पाऊँ तो क्या, आज पछताऊँ तो क्या
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
उस देस में तेरे परदेस में
सोने-चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल
इस गाँव में, दर्द की छाँव में
प्यार के नाम पर ही धड़कते हैं दिल
चाँद तारों के तले, रात ये गाती चले
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
इसकी हर पंक्ति बाँध लेती है। कुछ कहती है अगर सुनना आ जाए तो बहुत गहरी बातें कहती हैं। इस गीत का दर्द कुछ ऐसा है जिसमें दवा भी छिपी है। आगे पढ़िए ज़रा।  
याद आती रही, दिल दुखाती रही
अपने मन को मनाना न आया हमें
तू न आए तो क्या, भूल जाए तो क्या
प्यार करके भुलाना न आया हमें
वहीं से दूर से ही, तू भी ये कह दे कभी
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
आखिर में ज़िंदगी की हकीकत का ब्यान भी बहुत ही खूबसूरती और सलीके से किया है। झटका लगता है लेकिन बहुत ही सूक्ष्म ढंग से। 
रस्ता वही और मुसाफ़िर वही
एक तारा न जाने कहाँ छुप गया
दुनिया वही, दुनियावाले वही
कोई क्या जाने किसका जहाँ लुट गया
मेरी आँखों में रहे, कौन जो मुझसे कहे
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया …
बड़ा अजीब सा गीत है। दिल और दिमाग को हिला कर रख देता है। कभी रुलाता है। कभी हौंसला देता है। कुल मिलाकर ज़िंदगी के  रंगों की झलक सी दिखाता है। अगर कभी नहिएं सुना तो एक बार ज़रूर सुनिए प्लीज़। फिल्म में इसके साथ सेट भी बहुत अच्छे हैं और डॉयरेक्शन भी कमाल की है। गीत सुनते सुनते--गीत देखते देखते व्यक्ति खो जाता है। तब पता चलता है ज़िंदगी भर हमारे साथ चार सो बीसी ही होती रही लेकिन हम सोए रहे, सोए रहे.शायद अब जाग जाएं। --रेक्टर कथूरिया 

Thursday, August 23, 2018

हर दुखता दिल मेरा है-रेक्टर कथूरिया

अमिता सागर जी की पोस्ट ने याद दिलाया अतीत का दर्द
तुम सितारों पर 
अपना पैगाम 
लिख कर भेजो ना,
मैं जागती हूँ
रात भर
पढ़ लूंगी

ऊपर दी गयीं पंक्तियाँ तेज़ी से उभर कर सामने आई शायरा अमिता सागर जी की हैं। नकोदर उनकी कर्मभूमि है। एक ऐसा इलाका जहाँ अभी भी आजकल के अंधे विकास की मार से बचा हुआ सकून कुछ बाकी है। वहां दाखिल होते ही लगता है कि हम अभी भी प्रकृति के नज़दीक हैं। 
कुछ समय पहले-शायद अगस्त 2018 में उन्होंने इस छोटी सी काव्य रचना को फेसबुक पर पोस्ट किया था। पढ़ कर कुछ अलौकिक सा अनुभव हुआ। मैं इनको पढ़ कर खुद में मग्न था। हालांकि समाचार डेस्क पर इस तरह खुद में मग्न होना उचित नहीं होता। खबरों में संवेदनशील भी रहना होता है लेकिन खुद को पत्थर भी बना कर रखना होता है। भावुक आवेग में कहीं सच्चाई धुंधला न जाये इसका विशेष ध्यान रखना पड़ता है। इतने में समाचार डेस्क पर ही किसी सहयोगी ने पूछा भला सितारों पर पैगाम भेजना कैसे सम्भव है? मैंने कहा अमिता सागर खुद भी शायरा है और साथ ही हरदयाल सागर जैसे बेहद क्षमतावान शायर की पत्नी भी है--इस लिए वह सितारों को भी संचार का माध्यम बना सकती है। 
Rector Kathuria  Amita Sagar जी वास्तव में मुझे आपके इन शब्दों में अतीत याद आया---याद ही नहीं आया---किसी फिल्म की भाँती आँखों से गुज़रा...फिर से नज़र आया--मैं बहुत छोटा था--लेकिन मुझे अपने माता पिता से अलग रहना पड़ा--पिता जी के विचारों ने उन्हें सत्ता के गलियारों की आँख का दुश्मन बना दिया--उन्हें अंडरग्राऊंड होना पड़ा--सख्तियाँ बढती गयीं---मुझे कहीं अलग रहना पड़ा--पिता जी कहाँ थे नहीं मालूम था--मां कहाँ थी नहीं पता था---जहाँ रहता था उन्होंने बहुत प्रेम से रखा' वहां कोई कमी भी नहीं थी लेकिन माता पिता की याद आती---ख़ास कर माँ की---चिठ्ठी भी कैसे लिखता--कोई पता नहीं था---हर रिश्तेदार के पते पर भी पहरा था और डाक भी सेंसर होती थी--तब--केवल आसमान पर निकले सितारे और चाँद ही था जिनको देख कर लगता--मेरी मां जहाँ भी होगी कम से कम सितारों को तो ज़रूर देखती होगी---मुझे मालूम है परेशानी के मारे मां को नींद नहीं आती थी---मुझे महसूस होता यही वोह केंद्र बिंदु है जहाँ हमारी नज़र शायद मिलती होगी---और मेरी मां मेरे आंसू और उदासी देख लेती होगी---अन्याय के खिलाफ बोलना--किसी स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए कुछ करना---यहाँ किसी जुर्म से कम तो नहीं----हम सभी ने इस जुर्म की सजा भुगती है---अब भी यह सिलसिला जारी है--परिवार के बहुत से सदस्य खो कर भी यह सज़ा जारी है---मुझे यहाँ की तथाकथित महानता पर कभी गर्व नहीं हुआ--सो आपकी काव्य पंक्तियाँ मुझे बहुत पीछे ले गयीं--जब मैं शायद केवल आठ दस वर्ष का था--- सत्ता की सख्तियाँ मुझे जहाँ श्री गुरु गोबिंद सिंह जी और भगत सिंह के विचारों के नजदीक ले गयीं वहीँ आम जनता के भी पास ले कर गयीं---मैं किसी दल का सदस्य नहीं--लेकिन हर दुखता दिल मेरा है---इसलिए आपकी पंक्तियों का एक बार फिर आभार...
इसके जवाब में अमिता सागर जी ने लिखा:Amita Sagar Rector Kathuria मुझे इस बात का दुख होता है कभी कभी कई पाठक इसे मेरी निज की व्यथा समझ लेते हैं। जबकि हर संवेदनशील व्यक्ति मे दूसरे का दर्द पहचान लेने का सामर्थ्य होता है। वैसे एक बात सांझी थी हममें मेरे मम्मी जी को उस दिन मुखाग्नि दी गई थी जिस रात मैंने यह लिखा। 
अमिता सागर जी की एक काव्य पोस्ट पर किया गया कुमेंट 



मिलना और बिछुड़ना सब उसी भगवान का खेल है

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