काश देश के हर गांव में होता एक शांतिनिकेतन
तस्वीरें विश्व भारती से साभार ली गई हैं |
रेक्टर कथूरिया |
मुझे रवींद्रनाथ टैगोर की तस्वीर बचपन में ही बहुत अच्छी लगती थी। जब दार जी मतलब सरदार गुरुबख्श सिंह प्रीत लड़ी जी से पहली बार भेंट हुई तो मैंने उन्हें भी बताया कि आपकी दाड़ी और टैगोर की दाड़ी मुझे बहुत अच्छी लगती है। फिर उन्हीं से पूछने लगा यहां शांति निकेतन कहां है मैं वहां जा कर पढ़ना चाहता था लेकिन यूं ही बड़ा हो गया जिस पर मुझे बहुत अफसोस है। फिर भी देखना तो चाहता ही हूं। शांति निकेतन अब भी एक सपना ही तो लगता है। मन करता है फिर से बच्चा बन जाऊं और शांति निकेतन में पहुंच जाऊं। लेकिन अगर बचपन में ही ऐसा नहीं हुआ तो अब तो ऊपर जाने की उम्र है। पता नहीं वहां भी शांति निकेतन होगा या सब कुछ यहीं अंतिम संस्कार में खो जाएगा! पर फिर भी बचपन की वह इच्छा याद है जब शांति निकेतन ढूंढ़ना ही महत्थावपूर्ण मिशन था। इसकी इच्छा जवानी तक भी बनी रही। अब भी सोचता हूँ स्कूल हों तो टैगोर की सोच वाले शान्ति निकेतन जैसे ही हों।
इसी शिद्दत के चलते याद आता है जालंधर में कई दश्क पहले हुआ महिलाओं का एक राष्ट्रीय सम्मेलन। उसी में आए हुए थे सरदार गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी। वहीं पर हुईं थी उनसे आमने सामने वाली पहली मुलाकात। उसी मुलाकात में हुई थीं उनसे कुछ बातें जो मुझे शब्द दर् शब्द याद रहीं। उस बातचीत की आवाज़ मेरे कानों में गूंजती रहती। शज्द इसे किस्मत कहते हैं या बेवकूफी लेकिन आवाज़ गूंजती रहती मैं फिर भी न सुन पाया। अंतर्मन की उस आवाज़ के पीछे निकल पड़ता तो शायद आज कुछ और ही होता। कुछ और अच्छा इन्सान होता। कुछ सफल इंसान बन पाता। प्रीतलड़ी के ज़रिए दार जी को पढ़ा तो था लेकिन उन्हें देख पहली बार रहा था। उम्र का अंतराल बाहत ज़्यादा था लेकिन इसका अहसास भी नहीं हुआ। रत्ती भर भी नहीं। पूछने लगे प्रीत लड़ी पढ़ते हो? मैंने कहा जी बिलकुल पढता हूँ लेकिन रेगुलर नहीं। बस जब हाथ लग जाए तो पढता हूं। उन्होंने कहा हाथ लग जाए मतलब तो मैंने बात साफ़ की कि हर बार खरीदने के पैसे जेब में नहीं होते। उन्होंने कहा मुझे पत्र लिखना और अपना डाक का पता भेजना। प्रीतलड़ी तुम्हे मिलकरेगी। बेहद ख़ुशी भी हुई और पत्र लिखने का वायदा भी किया लेकिन कभी न लिख पाया। इसके साथ ही पूछने लगे कौन सा अंक अच्छा लगा ?मैंने दो तीन अंक गिनवा दिए। उनकी कवर सटोरियों के हवाले दे कर अपनी बात की पुष्टि करनी चाही कि देखो मैंने सच में पढ़े हैं। यूं ही तुक्का नहीं लगाया।
उन्होंने मुझे गले लगाया। सिर पर हाथ भी फेरा और कहा प्रीतनगर ज़रूर आओ। अच्छा लगे तो वहीं रहना। तुम्हारी असली जगह वहीं है। सब इंतज़ाम हो जाएंगे। अंतर्मन की आवाज़ सुनो तो यह बहुत सी शक्तियां देती है और मंज़िलों की तरफ जाते रास्ते अपने आप खुलते चले जाते हैं। मैंने झिझकते हुए कहा लेकिन मुझे तो टैगोर के शांति निकेतन जाना है। वहां तक कैसे जाऊं? उन्होंने कहा वहां आना प्रीत नगर में शांति निकेतन भी ज़रूर मिलेगा। मुझे लगा ज़रूर कहीं आसपास होगा।
शांति निकेतन की झलक घर में पड़ी पुस्तकों के ज़रिए ही देखी थी। इसी ललक में बहुत देर रहा भी। आखिर यहां तक सोचने लगा कि शायद सभी स्कूल शांति निकेतन जैसे होते होंगें। लेकिन नहीं कोई ऐसा स्कूल नहीं मिला। कुछ और समय गुज़रा तो स्कूलों कालेजों को व्यापारिक स्थलों में तब्दील होते भी देखा। आज के बड़े बड़े स्कूलों का जो रूप नज़र आने लगा है वह रातो रात तो बनते नहीं देखा। इसमें लम्बा समय लगा है। उन दिनों छोटे छोटे स्कूल चलाने वाले बहुत से लोग आजके बड़े बड़े अमीर बन गए। इसके बावजूद शांतिनिकेतन की चाह कभी कम न हुई। आज भी अंतर्मन में एक सपना सा ही है टैगोर वाला शांति निकेतन। उस शांति निकेतन की भावना को बेहद नुकसान ही पहुंचा है मौजूदा कारपोरेटी सिस्टम में। शायद अब कभी साकार नहीं हो पाएगा शांतिनिकेतन या प्रीत नगर! फिर भी लोगों के दिलों बसता ही रहेगा। लेकिन मेरा क्या होगा? शांतिनिकेतन कैसे दिखेगा?
आखिर क्या जादू था शांति निकेतन में न जहां आरम्भ में केवल पांच बच्चे छात्रों के रूप में आए वो भी शायद मुश्किलों से। इस के लिए सात एकड़ की ज़मीन रवीन्द्रनाथ टैगोर आप ठाकुर भी कह सकते हैं अपने पिता से मिल गई थी। उन्होंने इसे मेडिटेशन के लिए खरीदा था। फिर रवींद्र को दे दिया। इस स्कूल में गाँधी जी भी आते रहे और टैगोर की तीखी आलोचना भी करते रहे। आज तो बहुत नाम है। वहां एक बहुत बड़ी यूनिवर्सिटी बन चुकी है जिसे यूनेस्को भी मान्यता देता है।
इसे लेकर और भविष्य को लेकर कवि, लेखक, चित्रकार, संगीतकार, शिक्षाविद, नोबेल पुरस्कार विजेता कितने उम्मीद से भरे हुए थे। आशा होना अलग बात हो सकती है लेकिन पूरा विश्वास होना अलग बात है। उन्हें पूरा विश्वास था। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर या टैगोर साहिब ने कभी बहुत ही स्पष्ट कहा था-"मेरी कविताओं, मेरी कहानियों और मेरे नाटकों के भविष्य के फैसले में जो कुछ भी भाग्य हो सकता है, मैं निश्चित रूप से जानता हूं कि बंगाली जाति को मेरे गीतों को स्वीकार करना होगा, वे सभी मेरे गीतों को हर बंगाली घर में गाएंगे। खेतों और नदियों के किनारे... मुझे ऐसा लगता है कि संगीत मेरे मन की किसी अचेतन गहराई में से उमड़ रहा है, इसलिए इसमें एक निश्चित पूर्णता है।" जिस जिस को प्रकृति के नज़दीक रहना पसंद है वही उस जगह की महानता और उसमें छिपी तरंगों कर सकता है। वहां जा कर इश्क हो जाना भी स्व्भविक है लेकिन वह इश्क बहुत ही विराट होगा। प्रकृति से इश्क जिसमें डूब कर न उदासी रहेगी न ही निराशा। वहां बेवफाई भी शायद नहीं होगी। वहां धोखा भी शायद नहीं होगा। ऐसा स्कूल देश के हर ज़िले के हर गांव में होना चाहिए था लेकिन हम एशिया कुछ नहीं कर पाए।
इस महान स्थान का इतिहास आज भी मनमोहक है। इसके बारे में जानें तो मानवमन खो जाता है। उस दुनिया में जो होती तो चाहिए लेकिन कभी हो नहीं पाई। लगता है यहाँ फिर से बता दूँ कि इसका इतिहास बहुत समृद्ध है। बहुत ही महान।
उस दौर में टैगोर की मानसिक ऊंचाई को समझने की कोशिश करनमि हजो तो इस स्थान के इतिहास को समझना भी ज़रूरी होगा। इसके संस्थापक रवींद्रनाथ टैगोर के जीवनकाल के दौरान विश्व-भारती के विकास का एक अध्ययन, एक अंतर्दृष्टि प्रदान करता है कि इस संस्था को क्या हासिल करना था। रवींद्रनाथ ने शांतिनिकेतन में बच्चों के लिए एक स्कूल की स्थापना की और यह इस केंद्र के आसपास था कि एक अपरंपरागत विश्वविद्यालय की संरचना सावधानीपूर्वक योजना के माध्यम से विकसित हुई। इसी मिशन में थे टैगोर के सभी सपने। वे सभी सपने जिन्हें देख कर मुझ जैसों को भी लगता था कि यह हमारे ही सपने हैं। वास्तव में सही बच्चों को ऐसा लगता था।
बात है सन 1863 की जब वर्तमान संस्था के स्थल पर सात एकड़ के भूखंड पर, कवि के पिता, देवेंद्रनाथ टैगोर ने ध्यान के लिए एक छोटा सा आश्रय स्थल बनाया था, और 1888 में उन्होंने भूमि और भवनों को एक ब्रह्मविद्या की स्थापना के लिए समर्पित भी किया। इसके साथ ही एक पुस्तकालय भी बना
उस दौर में डोनेशन स्कूल दाखिल होने के लिए नहीं थे। कोई सिफारिशें नहीं थी बस एक मिशन था। रवींद्रनाथ के इस ऐतिहासिक स्कूल ने ब्रह्मचर्यश्रम के तौर पर बाकायदा 22 दिसंबर, 1901 से औपचारिक रूप से काम करना शुरू कर दिया था। समय इस जिसमें पांच से अधिक छात्र नहीं थे। यह सब आंशिक रूप से, उनके पिता की इच्छाओं की पूर्ति थी, जो शैक्षिक सुधारों के क्षेत्र में अपने समय के एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे। सन 1925 से इस स्कूल को पाठ भवन के नाम से भी जाना जाने लगा। मुश्किलों और हिम्मतों के साथ एक ज़ोरदार शुरुआत हो चुकी तरही। कौन जनता था इसने एक आंदोलन की तरह भी बन जाना है।
एक बात और जिसका ज़िकर यहां ज़रूरी है कि यह स्कूल ब्रिटिश शासकों द्वारा भारत में शुरू की गई व्यवस्था का एक सचेत खंडन थाखुला कर खंडन था। यह कम हिम्मत की बात नहीं थी। रवींद्रनाथ ने शुरू में ही भारत में प्राचीन शिक्षा के आंतरिक मूल्यों को महसूस करने की मांग की थी। ऐसी मांग आवश्यक भी थी। इसका उठना और विस्तारित होना ही देश और दुनिया के लिए अच्छा ठगा। इसलिए, स्कूल और उसके पाठ्यक्रम ने देश के बाकी हिस्सों में शिक्षा और शिक्षण को देखने के तरीके से एक प्रस्थान का संकेत दिया। यह संकेत भी बहुत ही स्पष्ट था। कहा जा सकता है कि उस दौर में एक नई शिक्षा नीति का प्रारूप और प्रस्ताव ही था यह।
उस समय इसका मिशन कितना उच्च और दूरदर्शी था। इसका अनुमान इसके प्रबंधन भी लग जाता था। सादगी एक प्रमुख सिद्धांत था। सादगी से डोर होने दुष्परिणाम आज शायद सारी दुनिया देख चुकी है। इसके साथ ही प्रकृति की नज़दीकियां भी थीं। पेड़ों की छाया में खुली हवा में कक्षाएं आयोजित की जाती थीं जहां मनुष्य और प्रकृति ने तत्काल सामंजस्यपूर्ण संबंध में प्रवेश किया। आज के ए सी कल्चर ने हमें क्या दिया यह भी सभी के सामने है। शिक्षकों और छात्रों ने एकल अभिन्न सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन साझा किया। पाठ्यक्रम में संगीत, पेंटिंग, नाटकीय प्रदर्शन और अन्य प्रदर्शनकारी प्रथाएं थीं। बौद्धिक और अकादमिक गतिविधियों की स्वीकृत सीमाओं से परे, मानव व्यक्तित्व के कई गुना संकायों को मजबूत करने और बनाए रखने के अवसर पैदा हुए। एक नया शिक्षण परिवार पैदा होने लगा था।
देश के बहुत से हिस्सों में जब आनंदमार्ग ने अपने स्कूल चलाए तो उन स्कूलों में भी मेडिटेशन, कीर्तन, ध्यान और गीत संगीत अहम रहता। इन स्कूलों में बच्चों के पौष्टिक भोजन का भी विशेष ध्यान रखा जाता और एक्सरसाईज़ का भी। योगसाधना का भी और खेलकूद का भी। इस तरह की कोशिशों के बावजूद शांतिनिकेतन की योजना और आगे शायद नहीं बढ़ पाई। फिर कुछ समय पहले किसी ने यह भी कहा कि जिस शांतिनिकेतन ने अब वो शांतिनिकेतन कहीं भी नहीं है। शायद कहने वाले सच भी कहा हो फिर भी मेरा मन नहीं मानता कि जिस भूमि पर मेडिटेशन की जाती रही हो उसके प्रभाव को दुनिया की कोई भी शक्ति इतनी जल्दी कैसे बदल सकती है। लगता है वहां फिर से ऐसे लोगों का आनाजाना बढ़ाना होगा जो उसी तरह के हों। लइकन ऐसे लोग आएंगे कहां से?
चल अकेला गाते गाते चले गए डाक्टर भारत
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