कामरेड रमेश रत्न जी भी पत्नी के बाद अधूरे से रह गए हैं
लुधियाना:16 जुलाई 2021: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::
एक फिल्म आई थी निकाह--शायद 1982 में--सलमा आगा उसमें नायका भी थी और गायका भी--फिल्म इस्लामी विवाह और तलाक पर रौशनी डालते हुए बताती है कि जो अन्याय महिला के साथ होता है--वह बहुत बड़ा है--फिल्म बेशक इस्लामिक जनजीवन पर आधारित थी। मुद्दा तलाक का था लेकिन गैर इस्लामिक क्षेत्रों में भी स्त्री के साथ इस तरह का बहुत सा अन्याय होता आ रहा है रंग रूप और नाम बदल कर। हिंदी फिल्म दामिनी में बहुत कुछ दिखाया गया था। फिल्म निकाह में एक कवाली नुमा गीत था--बोल शायद हसन कमल साहिब के थे। शमा और परवाने के मुकाबिले को दर्शाते हुए शायर शमा की तरफ से लिखता है:
परवाने से पहले जली और परवाने के साथ जली
वो तो जला बस पल दो पल शमा तो सारी रात जली
एक परवाना जला इक कदर शोर मचा
शमा चुपचाप जली लब पे शिकवा न ग़िला
क्या है जलने का मज़ा हुस्न से पूछो ज़रा
क्योंकि
परवाने को जल जाना हम ने ही सिखाया है
वो तब हि जला हम ने जब ख़ुद को जलाया है
आशिक़ की जान इश्क़ में जाने से पेश्तर
ख़ुद हुस्न डूबता है वफ़ा के चनाब में-
वास्तव में हर पत्नी इसी तरह पूरी उम्र भर जलती रहती है। बहुत ही सलीके से। बहुत ही ख़ामोशी से। न आस पड़ोस तक किसी त्लकलीफ़ की भनक पहुंचती है और न ही रिश्तेदारों तक। ... और इसी तरह दुःखों की अग्नि में जलते जलते एक दिन चुपचाप विदा हो जाती है। अचानक--बिना कुछ बताये।
कामरेड रमेश रतन |
---यह सिलसिला आर्थिक तंगियों के कारण कामरेडों के घरों में भी होता है--इक इक सांस मुश्किल से गुज़रती है। घर का गुज़ारा कैसे चलता है, बच्चे कैसे बड़े होते हैं, कैसे पढ़ते हैं इसकी कहानी कोई नहीं जानता सिर्फ उस मां को ही ज़्यादा पता होता है। पिता से भी ज़्यादा पता होता है। यहाँ तक कि अमीर कामरेड भी नहीं जानते कि उनके साथी के घर में चूल्हे की क्या हालत है।
रमेश रत्न जी आपकी पत्नी ने भी ऐसे बहुत से दिन देखे होंगें और मेरी पत्नी ने भी देखे हैं। अजीब इतफाक कि दोनों ने एक ही तारीख चुनी इस दुनिया से विदा होने के लिए। इससे हमारा दुःख भी हमें एक दुसरे के ज़्यादा नज़दीक ले आया।
आप ने अपनी पत्नी राजरानी के बारे में लिख कर उसकी खामोश क़ुरबानी को शब्द दिए हैं। हर परिवार को आपका आभारी होना चाहिए। हर सच्चे इन्सान को यह सब लिखना चाहिए। कामरेडों को तो हर हाल में लिखना चाहिए। हम उस क़ुरबानी की चर्चा भी न करें तो यह अनैतिक बात होगी। नमकहराम बनने जैसा होगा। बहुत बेवफाई होगी। इन्हीं महिलायों से हमेशां हमें शक्ति मिलती रही है। जब जब भी हम घुटने तक क्र हारने की स्थिति में होते थे तब तब इनकी हिम्मत और प्रेरणा हमें फिर से थी। इसलिए इनको भी सलाम। आपने बहुत अच्छा लिखा--आपको भी सलाम। बाकी बातें मिलने पर करेंगे ही।
न उदास होने से कोई लौट कर आता है न ही रोने से लेकिन फिर भी एक सकूं सा मिलता है। शायद यही होता है वो उजाला जिसके बारे में किसी शायर ने कहा था-
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो!
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम जाए!
इस के साथ ही हम अपने दुःखों की चर्चा कर लेते हैं। अपने ख्वाबों की बात कर लेते हैं। कुछ दुःख तेरे--कुछ दुःख मेरे--बस यही है ज़िंदगी। यही है दुनिया। यही भावना हमें एक दुसरे के नज़दीक ले आती है।
-- रेक्टर कथूरिया
2 comments:
ਕਥੂਰੀਆ ਜੀ ਤੁਸੀਂ ਬਹੁਤ ਸਹੀ ਲਿਖਿਆ ਹੈ ਅਕਸਰ ਕਿਹਾ ਜਾਂਦਾ ਹੈ ਕਿ ਕਿਸੇ ਮਰਦ ਦੀ ਕਾਮਯਾਬੀ ਪਿੱਛੇ ਕਿਸੇ ਔਰਤ ਦਾ ਹੱਥ ਹੁੰਦਾ ਹੈ ਪਰ ਸਾਡਾ ਜ਼ਾਲਮ ਸਮਾਜ ਅਕਸਰ ਉਸ ਔਰਤ ਦੀ ਕੁਰਬਾਨੀ ਨੂੰ ਨਜ਼ਰਅੰਦਾਜ਼ ਕਰ ਦਿੰਦਾ ਹੈਂ ਇੱਥੇ ਰਮੇਸ਼ ਰਤਨ ਜੀ ਅਤੇ ਤੁਸੀਂ ਵਧਾਈ ਦੇ ਪਾਤਰ ਹੋ ਜੋ ਕਮ ਸੇ ਕਮ ਉਸ ਕੁਰਬਾਨੀ ਨੂੰ ਯਾਦ ਕੀਤਾ ਹੈ ਯਾਦ ਰੱਖਿਆ ਹੈ ਸਲਾਮ
ਪ੍ਰਦੀਪ ਸ਼ਰਮਾ ਜੀ ਇਸ ਦੁੱਖ, ਇਸ ਦਰਦ ਦੀ ਜਿਸ ਬੇੜੀ ਵਿੱਚ ਮੈਂ ਤੇ ਰਮੇਸ਼ ਰਤਨ ਜੀ ਸਵਾਰ ਹਾਂ ਤੁਸੀਂ ਵੀ ਉਸੇ ਕਿਸ਼ਤੀ ਵਿਚ ਮੌਜੂਦ ਹੋ। ਤੁਸੀਂ ਵੀ ਕੁਝ ਮਹੀਨੇ ਪਹਿਲਾਂ ਇਹੀ ਵਿਛੋੜਾ ਸਹਿਣ ਕਰ ਕੇ ਹਟੇ ਹੋ। ਸਾਡੇ ਦੁੱਖ ਦਰਦ ਵੀ ਆਮ ਤੌਰ ਤੇ ਇੱਕੋ ਜਿਹੀ ਹੀ ਹਨ।
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