Sunday, July 7, 2019

उस देस में.....सोने-चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल

इस गाँव में...प्यार के नाम पर भी धड़कते हैं दिल
 कामरेड गुरनाम सिद्धू साहिब के साथ बैठे हैं एटक के कामरेड विजय कुमार 
न्यू कुंदनपुरी (लुधियाना): 7 जुलाई 2019: (रेक्टर कथूरिया): रात्रि 10:27 बजे:
बचपन में जब यह समझ भी नहीं थी कि प्यार क्या होता है? इश्क क्या होता है? तब से ही यह गीत बहुत अच्छा लगता था। ख़ास तौर पर ये पंक्तियाँ-

उस देस में तेरे परदेस में
सोने-चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल
इस गाँव में, दर्द की छाँव में
प्यार के नाम पर ही धड़कते हैं दिल

एक दिन छुप छुप कर इस गीत के साथ गुनगुनाते हुए पिता जी ने देख लिया। सोचा पिटाई होगी। दांत पड़ेगी लेकिन उन्होंने मुझे गले से लगा लिया। इस गीत की पंक्तियों के अर्थ भी समझाए। फिर वो ज़माना भी छीन गया। चालीस पचास साल का अंतराल कम से कम छोटा तो नहीं होता। ज़िंदगी थकने लगी। व्यर्थ भी लगने लगी। एक दिन कामरेड गुरनाम सिद्धू साहिब से मिलने ऋषि नगर निकल गया।  
कामरेड गुरनाम सिद्धु साहिब से मिल कर थोड़ी देर पहले ही घर लौटा हूँ। पहले मैं खुद को ही अघोषित पागल समझता था अब लगता है मैं अकेला नहीं हूं, मेरी तरह वह भी हैं। मुझ से भी बड़े पागल। हर वक़्त लुटने लुटाने को तैयार। अपनी पूंजी के नाम पर कुछ बनाना नहीं पर गंवाने की धुन हर वक़्त सिर पर सवार। 
राजकपूर साहिब की किसी फिल्म में एक गीत की पंक्ति थी न: किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार--जीना इसी का नाम है। बस कामरेड गुरनाम सिद्धु बेगाना दर्द ढूँढ़ते ही रहते हैं और बिना किसी बहीखाते के उस दर्द को अपने नाम कर लेते हैं। आज के आधुनिक ज़माने में भी वह बहुत ही पुरानी किस्म के कामरेड हैं जो आजकल नहीं मिलते। दुर्लभ होते जा रहे हैं। 
उनसे मिलने के बाद भी मेरा मन आज ज़्यादा ही उदास है। तन भी डांवाडोल सा। सभी व्यस्त हैं अपने अपने घरों में। आवाज़ भी दूं तो किसको दूं? दे भी दूं तो आएगा कौन? अच्छा है चुप रहा जाये। कम से कम भरम तो बना रहेगा कि वह भी अपना, वह भी अपना। 
जिस जिस का भला करने के लिए अपना नुकसान किया उस उस ने ही समझाया कि तुम बेवकूफ हो। तुम्हे दुनियादारी ही नहीं आती। जिनको पैसे के पहाड़ों पर बैठे देखा वे बेहद कंजूस निकले जो खुद की जान बचाने को भी चवन्नी खर्च न करें। जो कुछ करना चाहते हैं उनका हाथ तंग है। जो थोड़े से लोग कुछ करते भी हैं वे इसके बदले में गुलामों की तरह हर सांस तक खरीद लेना चाहते हैं। उनकी चाहत हैं हम उन्हीं के मुताबिक सोचें, उन्हीं के मुताबिक बोलें, उन्हीं के मुताबिक लिखें। कैसी है ज़िंदगी? कैसी है दुनिया? पैसा ही भगवान है शायद। 
उलझनों में कुछ भी सुलझता नज़र नहीं आता। एक फिल्म आयी थी शायद-श्री 420--उसमें एक गीत था: 

रमैया वस्ता वैया-रमैया वस्ता वैया। 

गीत लिखा था जनाब शैलेन्द्र साहिब ने और आवाज़ें दीं थीं मोहम्मद रफ़ी साहिब, इस युग की महान गायका लता मंगेशकर और दर्द भरी आवाज़ में गाने वाले जनाब मुकेश साहिब जैसे सदाबहार कलाकारों ने। वे सभी कालजयी गायक हैं। फिल्म में इस गीत का सेट लाजवाब था। इस तरह का नज़ारा दोबारा कुछ कुछ नज़र आया था अस्सी के दशक में आए टीवी सीरियल नुक्क्ड़ में। बात चल रही थी फिल्म की। ब्लैक एन्ड वाईट फिल्मों के उस दौर में इस फिल्म श्री-420 का जो रंग था वह अब तक लाजवाब है। इसी गीत में एक पंक्ति आती है:

याद आती रही, दिल दुखाती रही
अपने मन को मनाना न आया हमें।

बस अपनी हालत भी आज कुछ उसी तरह की लग रही है। ..अपने मन को मनाना न आया हमें। क्या करोगे अलमारियों भर पढ़ी किताबों का और साठ को पार कर चुकी उम्र का? सवाल मुंह बाये खड़े हैं। ज़िंदगी जवाब मांगती है और जवाब दे नहीं पा रहे हम।  बस याद आती है यही पंक्ति-अपने मन को मनाना न आया हमें। 
और मन है कि मानता ही नहीं। न जाने क्या करवाएगा।  खैर लीजिये ज़रा सुनिए वह यादगारी गीत:

रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
नैनों में थी प्यार की रौशनी
तेरी आँखों में ये दुनियादारी न थी
तू और था, तेरा दिल और था
तेरे मन में ये मीठी कटारी न थी
मैं जो दुख पाऊँ तो क्या, आज पछताऊँ तो क्या
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
उस देस में तेरे परदेस में
सोने-चाँदी के बदले में बिकते हैं दिल
इस गाँव में, दर्द की छाँव में
प्यार के नाम पर ही धड़कते हैं दिल
चाँद तारों के तले, रात ये गाती चले
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
इसकी हर पंक्ति बाँध लेती है। कुछ कहती है अगर सुनना आ जाए तो बहुत गहरी बातें कहती हैं। इस गीत का दर्द कुछ ऐसा है जिसमें दवा भी छिपी है। आगे पढ़िए ज़रा।  
याद आती रही, दिल दुखाती रही
अपने मन को मनाना न आया हमें
तू न आए तो क्या, भूल जाए तो क्या
प्यार करके भुलाना न आया हमें
वहीं से दूर से ही, तू भी ये कह दे कभी
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया
आखिर में ज़िंदगी की हकीकत का ब्यान भी बहुत ही खूबसूरती और सलीके से किया है। झटका लगता है लेकिन बहुत ही सूक्ष्म ढंग से। 
रस्ता वही और मुसाफ़िर वही
एक तारा न जाने कहाँ छुप गया
दुनिया वही, दुनियावाले वही
कोई क्या जाने किसका जहाँ लुट गया
मेरी आँखों में रहे, कौन जो मुझसे कहे
मैंने दिल तुझको दिया, मैंने दिल तुझको दिया
ओ रमैय्या वस्तावैया, रमैय्या वस्तावैया …
बड़ा अजीब सा गीत है। दिल और दिमाग को हिला कर रख देता है। कभी रुलाता है। कभी हौंसला देता है। कुल मिलाकर ज़िंदगी के  रंगों की झलक सी दिखाता है। अगर कभी नहिएं सुना तो एक बार ज़रूर सुनिए प्लीज़। फिल्म में इसके साथ सेट भी बहुत अच्छे हैं और डॉयरेक्शन भी कमाल की है। गीत सुनते सुनते--गीत देखते देखते व्यक्ति खो जाता है। तब पता चलता है ज़िंदगी भर हमारे साथ चार सो बीसी ही होती रही लेकिन हम सोए रहे, सोए रहे.शायद अब जाग जाएं। --रेक्टर कथूरिया 

No comments:

अब भी याद है दिल्ली वाली डीटीसी बसों का जादू

एक और सवा रूपए में बन जाया करता था दैनिक बस पास  चंडीगढ़ // मोहाली : 10 अक्टूबर 2024 : ( रेक्टर कथूरिया // मुझे याद है ज़रा ज़रा डेस्क ) :: सन...