Sunday, November 2, 2025

काश वे सब होते तो बन ही जाती चाइना गेट की पंजाब टीम भी

Saturday:01st November 2025 at 02:15 AM मुझे याद है ज़रा ज़रा...!

एक दिन डाक्टर भारत भी चल बसे और जल्द ही ओंकार पुरी भी


लुधियाना: 1 नवंबर 2025: (रेक्टर कथूरिया/ /मुझे याद है ज़रा ज़रा . ..!)::

ओंकार पुरी साहिब 2012 से लेकर इसके बाद वाले कुछ बरसों तक हम साथ ही रहे। तकरीबन हर रोज़ मुलाकात होती। वास्तव में  मेरी जान पहचान ही इन लोगों से 2012 में हुई  जब हम लोग सुब्हानी बिल्डिंग और मोचपुरा बाजार वाला संकरा  इलाका छोड़ कर सिविल लाइंस वाले कुछ खुले इलाके में आ गए। यहां ओंकार पूरी डा. भारत के अनन्य मित्र थे और मेरा भी डा. भारत से दिल और रूह का रिश्ता था। उनका अध्यात्म की दुनिया में काफी ज्ञान था। जाम और अध्यात्म की खुमारी वाले लोग बहुत कम मिलते हैं। डा. भारत उन्हीं में से थे। काश वे सब होते तो बन ही जाती चाईना गेट जैसी पंजाब की टीम भी। 

यहां सिविल लाईन्ज़ में आ कर हमारे घर के नज़दीक ही था डाक्टर भारत का दफ्तर। इस दफ्तर में मीडिया भी चलता था और डिटेक्टिव एजेंसी जैसा काम भी। पुरी साहिब उनके काम में बहुत निकट वाले दोस्त थे। शायद इनका पद भी प्रसधन या महासचिव जैसा रहता था। इस लिए तकरीबन हर रोज नहीं तो दूसरे तीसरे दिन मुलाकात हो ही जाती। उनका यह साथ उनकी आखिरी सांस तक बना भी रहा। व्यवसाय से वह अकाउंटेंट थे। एकाउंट्स की बारीकियों को समझने वाले थे। नई आर्थिक नीतियों और टेक्स इत्यादि की उलझनों की भी उन्हें पूरी समझ थी। 

उनके ग्राहकों में बहुत बड़े लोग भी थे जिनके आर्थिक फायदे की बात का ध्यान रखना उन्हें आता था। उनके कुछ ग्राहक तरनतारन के पट्टी इलाके में थे। यह शायद उनका पुश्तैनी इलाका ही था। वह हफ्ते दो तीन या कभी कभी चार दिन पट्टी जाया करते। उनकी ज़िद भी थी कि जाते थे अपनी स्कूटरी पर। चलाते भी बहुत तेज़ रफ़्तार में। जब वह बस पर सफर की बात नहीं माने तो हमने उन्हें मनाया कि आप काम वाले तीन चार दिन पट्टी में ही रहा करो। हर रोज स्कूटरी का इतना लंबा सफर मत किया करो। पट्टी से लुधियाना तक। अच्छा भला इंसान बस या कार में भी इतने लंबे सफर में थक जाता है। 

खैर उन्होंने हर रोज़ स्कूटर के सफर की ज़िद छोड़ ही दी। वास्तव में बस पर चढ़ने के लिए बनी ऊंची सीढ़ियां उनके घुटनों में दर्द छेड़ देती थी। इसके लिए वह डाक्टर भारत की सलाह से एक बड़ी सी बोतल वाली आयुर्वेदिक दवाई भी पिया करते थे। कैप्सूल भी इस दवा में शामिल रहते। दोनों दवाएं महंगी हुआ करती पर उनकी जेब इतना खर्चा आसानी से उठा लेती थीं। 

जब भी मिलते तो शाम का अरेंजमेंट कर के रखते थे। बस सूरज ढलते ही वह स्कूटर की डिक्की से सामान निकाल लाते। दोमोरिया पुल वाली मार्किट में प्रीतम का ढाबा बहुत पुराना था। शायद अब भी होगा लेकिन पिछले कुछ बरसों से उधर आनाजाना भी नहीं हुआ। प्रीतम की ज़िंदगी में प्रीतम से भी बहुत प्यार रहा क्यूंकि उसके पड़ोस में ही एक अखबार भी निकला करता था। अजीब इत्तिफ़ाक़ की जब अखबार के मालिक ने उस दूकान को बेचा तो वहां शराब का बहुत बड़ा ठेका खुल गया। हम हंसा करते देख ले प्रीतम तेरे और तेरे ढाबे के असली साथी बहुत नज़दीक आ गए। 

समय का चक्र चलता रहा। प्रीतम का देहांत हो गया। फिर ढाबा उसके बेटे ने संभाल लिया। प्रीतम के बेटे ने भी अपने पिता की तरह आपसी प्रेम प्यार को बनाए रखा। किसी दिन नहीं जा पाते और आँख बचा कर निकलने लगते तो झट से आ कर रास्ता रोक लेता। हम बताते आज राशनपानी का खर्चा जेब में नहीं है। 

इस पर नाराज़ हो कर बोलता। .मैं हूँ न अभी। बस चलो। ढाबे से लड़को को आवाज़ देता कि चल इनके स्कूटरों को साइड पर लगा और हमें खुद बाज़ू से पकड़ता और बहुत प्रेम से ढाबे में ले जाता। ढाबे में ले जाकर पांच सौ के दो   नोट डाक्टर भारत साहिब के सामने रखता और कहता जिस ब्रांड की भी मंगवानी है मंगवा लो। जो खाना है उसका आर्डर दे दो मैं अभी भिजवाता हूँ। खुद बाहर काउंटर पर जा कर बैठ जाता। इसके बाद एक दो बार चक्र भी लगा जाता लेकिन उसने खुद कभी हमारे साथ दारू नहीं पिया। हमने कई बार गिला  भी किया तो कहने लगा आप लोग वोडका पीते हो और मेरा ब्रांड और है। किसी दिन बैठेंगे ज़रूर। लेकिन वह दिन कभी न आया। बस हम बैठते और शाम ज़्यादा ढलने लगता निकलपड़ते। पुरी साहिब ने लुधियाना में भी शिमलापुरी जाना होता था। बस कुछ देर हवा प्याज़ी हो कर हम वापिसी की तयारी करते। बस उन दिनों यही थी हमारी दुनिया। अब जिसकी यादें शेष हैं। 

हम लोगों के जिन गिने चुने कुछ मित्रों की एक छोटी सी दुनिया थी उस में में पुरी साहिब काफी सरगर्म रहे। उनकी याद आई तो सोचा किस के साथ बात करें। आखिर एक धड़ल्लेदार संगठन बेलन ब्रिगेड की संस्थापिका अनीता शर्मा जी और उनके पति श्रीपाल जी का ध्यान आया। उनसे बात की तो उन्होंने ने भी बहुत नम आंखों से उन्हें याद किया। डाक्टर भारत और अनीता शर्मा जी की टीम के साथ डाक्टर भारत और पुरी साहिब भी काफी सक्रिय रहते रहे। हर बरस 26 जनवरी और 15 अगस्त को जब डाक्टर भारत कार्क्रम का आयोजन करते तो सरगर्मी शुरू होते ही अनीता शर्मा सुबह सुबह लडडू के पचार डिब्बे ले कर पहुँच जाते। कुछ और लोग भी थे जो अपना अपना योगदान बहुत श्रद्धा से डालते। कई नाम हैं जिनकी चर्चा फर्क कभी करेंगे। 

एक बार एक जज मैडम ने वहां पहुँच कर तिरंगा लहराया। कई बार कोई न कोई एम एल ए या सासंद इस ध्वज को लहराता। कुछ न कुछ वीआईपी ज़रूर पहुँचते। डाक्टर भारत पुरी साहिब और हम सभी ने मिल कर अपने इस संगठन को नाम दिया हुआ था चाईना गेट। बिलकुल इसी नाम पर बानी फिल्म वाली टीम की तरह इरादे थे। बस एक दिन दिल दिमाग पर कुछ बोझ पड़ा  और डाक्टर भारत चल पड़े। चाईना गेट टीम का अस्तित्व डाक्टर भारत के बाद ही खतरे में आ गया था। उनसे कहा भी कि इसको बचाने के लिए कुछ कर सकते हो तो जल्दी कर लो वरना कुछ भी सम्भाला न जाएगा।काश डाक्टर भारत ने यह सभी इंतज़ाम अपने होते होते कर लिए होते। उनसे बहुत बार कहा भी थी मान भी जाते रहे लेकिन वक़्त और हालात उन्हें फिर किसी नई उलझन में उलझा देते थे।

आखिर वही हुआ जिसका खतरा था। काश डाक्टर भारत सब अपनी आंखों से देख पाते। उनके जाने के बाद उस नाज़ुक घड़ी में चाईना गेट टीम के सभी दो चार सदस्यों का जो नैतिक कर्तव्य भी था इसे बचाने का वह भी मंद पड़ता गया। अंग्रेजी में शायद इसे  Moral Duty भी कहा जाता है। अर्थात नैतिक कर्तव्य। मैंने सभी से कहा भी कि किसी तरह इन स्मृतियों को संभाल लिया जाए वरना वक़्त के साथ साथ हमारी ज़मीर और भगवान भी हम लोगों को कभी माफ नहीं करेंगे। कई मित्रों से कहा लेकिन सब व्यर्थ गया। डाक्टर भारत के बाद न इस संगठन को बचाया जा सका और न ही इस विचार को। 

डाक्टर भारत के बाद ओंकार पुरी भी चल बसे। कोरोना डाक्टर भारत के रहते ही गंभीर हो गया था। फिर स्थिति और बिगड़ती चली गई। उदास मन से हमने भी लुधियाना छोड़ दिया। अब भी जब कभी लुधियाना जाना होता है तो उस इलाके में जाने का मन ही नहीं होता। उदासी लगातार गहराई हुई है। बस एक बार फिर से मानना पड़ता है कि जाने वाले कभी नहीं आते - --जाने वालों की याद आती है। 

इन यादों में से जब जब भी किसी याद ने ज़ोर पकड़ा और कुछ लिखा भी गया तो ज़रुर दोबारा हाज़र हो जाऊंगा कोई न कोई नई रचना ले कर।  तब तक के लिये आज्ञा चाहता हूं। 

Sunday, October 12, 2025

राकेश वेदा जी से पहली भेंट

Received From Mind and Memories on Thursday 9 October 2025 at 02:30 AM and Posted on 12th October 2025 

बहुत दिलचस्प हैं इप्टा वाले राकेश वेदा 

जालंधर नवांशहर मार्ग पर स्थित है खटकड़कलां। पर्यावरण भी बहुत ही मनमोहक और इतहास भी सभी को अपना बना लेने वाला। मुख्यमार्ग पर ही स्थित है शहीद भगत सिंह जी की यादें ताज़ा करने वाला शानदार स्मारक। 

कुछ बरस पहले की बात है। जगह थी खटकड़ कलां।"ढाई आखर प्रेम के"-यह था काफिले का नाम। इस ऐतिहासिक स्थान से शुरू हो कर इस काफिले ने पूरे पंजाब के गांव गांव में जाना था। बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता और तेज़ होती जा रही नफरत की सियासत के खिलाफ कुछ प्रगतिशील लोग इप्टा के बैनर तले खुल कर सामने आए हुए थे। "ढाई आखर प्रेम के......."  इस संदेश को गांव गांव के घर घर तक पहुँचाया जा रहा था। शहीद भगत सिंह के पैतृक गाँव से इसकी शुरुआत सचमुच बहुत असरदायिक थे। आसपास के गाँवों से भी बहुत से लोग वहां पहुंचने लगे थे। पंजाब की तरफ से मेहमाननवाज़ी करने वालों में देविंदर दमन भी थे, संजीवन सिंह भी, इंद्रजीत रूपोवाली भी और बलकार सिंह सिद्धू भी पूरे जोशो खरोश के साथ मौजूद थे।  

राकेश वेदा जी से पहली भेंट हुई थी खटकड़ कलां वाले मुख्य हाइवे पर जहां शहीद भगत सिंह जी की स्मृति में बहुत बड़ा सरकारी स्मारक बना हुआ है। इसी इमारत के पीछे है शहीद भगत सिंह जी का पुश्तैनी घर। वहां अब भी बहुत सी स्मृतियाँ शेष हैं। बाहर वाली सरकारी इमारत के गेट से बाहर निकल कर एक सड़क इसी पार्क के साथ साथ चलती हुई शहीद के पुश्तैनी घर तक ले जाती है। 

इससे पहले कि काफिला चल कर शहीद के पुश्तैनी घर तक जाए हम लोग इस रुट और अन्य प्रोग्राम को डिसकस कर रहे थे। मैं वहां कवरेज के लिए गया था। कैमरे के साथ साथ एक नोटबुक भी मेरे पास थी। जो जो लोग बाहर से आए थे उनके नाम स्टेशन और फोन नंबर उसी में नोट किए जा रहे थे। चूंकि मेरे कानों में काफी समय से समस्या चल रही है इसलिए मुझे डर रहता है कि कहीं नंबर या नाम गलत न सुना जाए। मैं जिसका नाम या नंबर नोटों करना चाहूँ उसके सामने अपनी नोट बुक कर देता हूं।  


मुझे याद है इप्टा के इस सक्रिय लीडर का कद लम्बा था और और नज़र हर तरफ ध्यान रख रही थी। सभी सदस्यों को साथ साथ बड़ी मधुरता से दिशा निर्देश भी दिए जा रहे था। जब मैंने उन्हें अपना मीडिया कवरेज का परिचय दिया तो साथ ही अपनी नोट बुक भी उनके सामने कर दी। उन्होंने अपना नाम लिखा राकेश वेद और साथ ही नंबर भी। 

नाम के साथ वेदा शब्द पढ़ कर मुझे दिलचस्पी और बढ़ गई और मैंने पूछा आप ने भी द्विवेद्वी ,  त्रिवेदी और चतुर्वेदी के नरः वेद पड़े हुए हैं क्या? बात सुन कर मुस्कराए और कहने लगे ऐसा कुछ नहीं है। वास्तव में मेरी पत्नी का नाम वेदा है। मैं अपने नाम के उनका नाम जोड़ लेता हूँ और वह अपने नाम के साथ मेरा जोड़ कर वेदा राकेश लिखती हैं।  

उस दिन हम सभी लोग शहीद भगत सिंह जी के पैतृक घर पर भी गए। इसके बाद छोटी बड़ी गलियों में से होते हुए पास ही स्थित एक गांव में बने गुरुद्वारा साहिब के हाल में भी। वहां नाटकों का मंचन भी हुआ। जनाब बलकार सिद्धू ने अपने भांगड़े वाली कला और बीबा कुलवंत ने अपनी आवाज़ की बुलंदी से अहसास दिलाया कि क्रान्ति आ कर रहेगी। शहीदों का खून रंग लाएगा। इसके बाद और दोपहर का भोजन भी यादगारी रहा। लंगर सचमुच बहुत स्वादिष्ट था। 

रात्रि विश्राम बलाचौर/ /नवांशहर की किसी महल जैसी कोठी में था। इप्टा के चाहने वाले बहुत ज़ोर दे कर हमें वहां ले गए थे। रात्रि भोजन के बाद कुछ मीठा सेवन करते समय किसी ने कहा कि अब हालात बहुत कठिन बनते जा रहे हैं। सत्ता और सियासत शायद खतरनाक रुख अख्त्यार कर सकती है।  यह सब सुन कर राकेश जी ने उर्दू शायरी में से ग़ालिब साहिब की शायरी भी सुनाई और दुष्यंत कुमार जी के शेयर भी। इस शायरी से सभी में नई जान आ गई। 

अब कोशिश है जल्द ही उनसे मिलने लखनऊ जाया जा सके। वैसे तो भेंट का इत्तिफ़ाक़ कहीं अचानक बी हो सकता है किसी अन्य जगह पर भी।  --रेक्टर कथूरिया 

Saturday, March 1, 2025

शायद जन्मों जन्मान्तरों तक भी विसर्जित नहीं हो पाती यादें...!

पहली मार्च 2025//याद न जाए बीते- दिनों की....!

बहुत सी बातों के सबूत नहीं होते लेकिन उन पर कमाल का यकीन उम्र भर बना रहता है---!

विसर्जन नहीं हो पाता शायद इसी लिए करनी पड़ती है मुक्ति के लिए साधना


कर्मकांड होता तो शायद विसर्जन भी हो जाता--!

न भी होता तो कम से कम तसल्ली तो हो जाती--!

लेकिन सचमुच विसर्जन हो ही कहां पाता है....!

शायद जन्मों जन्मान्तरों तक भी विसर्जित नहीं हो पाती यादें...!

इसकी याद दिलाई नूतन पटेरिया जी ने। उनकी हर पोस्ट कुछ नए अनुभव जैसा दे जाती है।

कुछ स्थान--कुछ लोग--कुछ रेलवे स्टेशन--कुछ ट्रेनें-कुछ रास्ते--कुछ यात्राएं---शायद इसी लिए याद आते हैं..!

उनसे कोई पुकार भी आती हुई महसूस होती है---!

कुछ खास लोगों की कई अनकही बातें भी शायद इसीलिए सुनाई देती रहती हैं---क्यूंकि किसी न किसी बहाने उनसे मन का कोई राबता जुड़ा रहता है..!

बहुत सी बातों के सबूत नहीं होते लेकिन उन पर कमाल का यकीन उम्र भर बना रहता है---!

मुझे लगता है इस सब पर विज्ञान निरंतर खोज कर रहा है---!

एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था--

तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई--- यूं ही नहीं दिल लुभाता कोई..!

ऐसी भावना और ऐसे अहसास शायद उन्हीं यादों के चलते होते हैं जो कभी विसर्जित नहीं हो पाती---!

यह बनी रहती हैं..कभी बहुत तेज़--कभी बहुत धुंधली सी भी..!

यह कभी भी विसर्नजित नहीं हो पाती...न तो उम्र निकल जाने पर--न देहांत हो जाने पर और न ही शरीर बदल जाने पर-----!

शायद यही कारण होगा कि धर्मकर्म और मजहबों में स्मरण अर्थात याद पर ज़ोर दिया जाता है....!

जाप एक खूबसूरत बहाना है इस मकसद के लिए..!

एकागर होने पर ही बुद्धि ढूँढ पाती है--- दिमाग या मन के किसी न किसी कोने में छुपी उन यादों को जो विसर्जित नहीं हो पाती---!

कभी विसर्जित न हो सकी इन यादों का यह सिलसिला लगातार चलता है...संबंध बदलते हैं..जन्म बदलते हैं..जन्मस्थान भी कई बार बदलते हैं...लेकिन अंतर्मन में एक खजाना चूप रहता है...!

नागमणि की तरह रास्तों को प्रकाशित भी करता रहता है...और शक्ति भी देता रहता है...!

कुंडलिनी की तरफ सोई यादें जब कभी अचानक जाग जाएँ तो उसमें खतरे भी होते हैं...!

अचानक ऐसी बातें करने वालों को मानसिक रोगी कह कर मामला रफादफा कर दिया जाता है लेकिन उनकी बातें निरथर्क नहीं होती...!

कुंभ जैसे तीर्थों में जा कर जब शीत काल की शिखर होती है तो ठंडे पानी में लगे गई डुबकी बहुत कुछ जगाने  लगती है...!  श्रद्धा और आस्था से इसे सहायता मिलती है...!

यदि ऐसे में किसी का तन मन हल्का हो जाता है तो समझो बहुत सी यादें विसर्जित हो गई...!

बहुत से पाप धुल गए--...!

बहुत सी शक्ति मिल गई...!

अधूरी इच्छाएं और लालसाएं..उसी धरमें बह गई---

इसे ही कहा जा सकता है मुक्ति मिल गई...!~

---रेक्टर कथूरिया 

काश वे सब होते तो बन ही जाती चाइना गेट की पंजाब टीम भी

Saturday:01st November 2025 at 02:15 AM मुझे याद है ज़रा ज़रा...! एक दिन डाक्टर भारत भी चल बसे और जल्द ही ओंकार पुरी भी लुधियाना : 1 नवंबर 202...