Sunday, August 18, 2024

जब लक्ष्मी की दूरी इम्तिहान लेती है!

 उस समय घैर्य, सबर और सबूरी की परीक्षा भी होती है 


खरड़
(मोहाली):18 अगस्त 2022: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा):: 

यह कुछ पंक्तियों का वटसैप संदेश जैसा ही था जो अब शायद ईमेल जैसा बड़ा पत्र बनता जा रहा है। इसे मैंने नोट किया था 18 अगस्त 2022 को और शायद उन्हीं दिनों किसी मित्र को भेजा भी था। इसे डिलीट करने का भी मन नहीं किया। संदेश भेजने के बाद इसे सहेजा भी इसीलिए था कि शायद कभी इसे दोबारा पढ़ना पड़े। हालात का जायज़ा हो जाता है पुराने पत्र और मैसेज पढ़ने से। सोचा आज इसे पढ़ कर देखूं कुछ गलत तो नहीं लिखा था। उन दिनों आर्थिक तौर पर भी हालात गंभीर थे। हालत स्वास्थ्य के हिसाब से भी अच्छी नहीं थी और जेब के हिसाब से भी। अब ऐसे में या तो मकार की उम्मीद होने लगती है या फिर किसी शुभचिंतक को बताने की इच्छा भी हो जाती है। ज़िंदगी में कई बार ऐसे वक्त आते हैं जब अस्तित्व खतरे में लगने लगता है। ऐसे में किसी से कुछ  न कुछ कहना ज़रूरी हो जाता है। बहुत सोच कर एक मित्र को समस्या बताई तो उन्होंने तुरंत हमदर्दी भी यहिर की और साथ ही पेटीएम नंबर भी मांग लिया। 

उस समय मैंने लिखा-मैं वैसे भी फॉर्मल नहीं हूँ। कोई औपचारिकता मुझे कभी अच्छी भी नहीं लगती। इसी लिए मुझे लगा आप ने जो पेटीएम नम्बर मांगा है वह शायद भगवत कृपा और भगवत प्रेरणा का ही परिणाम है।

इसके साथ समाजिक दुःख कहने से भी खुद को नहीं रोक पाया। यह सच है कि लेखक वर्ग ही शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाया करता है लेकिन लेखक ही शोषण का शिकार हो जाता है। कभी प्रकाशक उसका शोषण करते हैं तो कभी साहित्यिक कृतियों को बेचने वाले बाजार के कारोबारी और कभी बड़े बड़े आयोजनों के नाम पर बड़े बड़े संगठनों के पदाधिकारी।

फिर भी लेखक आयोजन के लिए इस्तेमाल  होने वाले हाल का किराया देते हैं। चायपानी समोसे का खर्च भी करते हैं। कुर्सियां मंगवाने का खर्च भी करते हैं। अक्सर कहा यही जाता है की यह सब कुछ आयोजन करने वाले संगठन के प्रबंधक ही करते हैं लेकिन अंदर का सच कुछ और ही होता है। 

लेकिन लेखक, पत्रकार और आयोजक साहित्यिक कवरेज करने को आए कलमकारों के लिए कुछ खर्च करना उचित नहीं समझते। देते भी हैं तो बड़े मीडिया घरानों को जिनके पास कोई कमी ही नहीं होती। शोषण भी आम तौर पर पहले से ही शोषितों का होता है। आयोजनों के रिकार्ड को साहित्यिक रिपोर्टिंग करने वाले ही सहेजा करते हैं। इसलिए इन की तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए बिना उनकी निष्पक्षता पर प्रभाव डाले। लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाता है। इस लिए अब बहुत से कार्यक्रमों और आयोजनों पर जाने का मन ही नहीं करता। 

फिर भी आपके फोन से एक नई आशा जगी। बदलते हालात की दस्तक सुनाई दी। इस वक्त गंभीर आर्थिक संकट में हूं लेकिन इसे सब को बताना कभी ज़रूरी नहीं लगा। 

आप सहजता और ख़ुशी से अपने वायदे के मुताबिक कुछ कर सकें तो बहुत अच्छी बात है पर न भी कर सकें तो भी कोई बात नहीं। मन पर बोझ न रखना। इतने सालों में पहली बार ही यह नौबत आई कि मजबूरी सी दिखने लगी। आपके आयोजन में आने से इनकार भी बुरा लग रहा था लेकिन आता हूँ तो आर्थिक मजबूरियां भी हैं। 

बारह दिन के बाद बुखार से उठा हूं। मित्र डाक्टरों से तो फोन पर ही कंसल्ट किया लेकिन दवाएं बहुत महंगी हो गई हैं। दो दिन में करीब 36 हज़ार रुपयों से भी अधिक  की पेमेंट करनी ज़रूरी है। बिजली, इंटरनेट, दूसरे शुल्क, यूनिवर्सिटी और अन्यों की सरकारी फीस इत्यादि।

इस वक्त आप कुछ उधार भी दे सकें तो बहुत मेहरबानी होगी।

जो भी स्थिति हो प्लीज़ एक आध घण्टे में बता ज़रूर दें।

डेढ़ दो घंटे के बाद कुछ राशि फोन पर आ गई। साथ ही मैसेज भी कि अगर स्वास्थ्य ठीक हो तो आयोजन से एक दिन पहले बता दें। गाड़ी भिजवा दी जाएगी। सही समय पर गाड़ी भी भिजवा दी गई। प्रोग्राम भी अटेंड किया। साथ में बेटी भी थी।  एक कैमरा असिस्टेंट भी ले लिया। आती बार फिर से हम तीनों के लिए तीन लिफाफे दे दिए गए। साथ ही लोई के साथ सम्म्मान भी किया गया। 

सोच रहा हूं क्या इस सहयोग सहायता को आयोजनों के रूटीन का नियमित हिस्सा बनाया जा सकता है क्या? कैमरे और कलम की मेहनत को समाज कब मेहनत मानेगा?

अब भी याद है दिल्ली वाली डीटीसी बसों का जादू

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