Friday, July 5, 2024

बहुत कुछ भूल जाता है लेकिन मोहब्बत का गम याद रहता है!

फिर भी सच्ची बातें कल्पना के आवरण में ही लिखी जा सकती हैं

खरड़ (मोहाली): 05 जुलाई 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

हरकी विर्क विर्क बहुत अच्छी लेखिका भी और बहुत अच्छी इंसान भी। उसके परिवार ने राजनैतिक विचारों के कारण बहुत सा उत्पीड़न भी सहा। इसका असर काफी देर तक उसकी मानसिकता पर भी बना रहा लेकिन वह जल्दी ही सम्भल गई। प्रकृति और अध्यात्म की दुनिया के नज़दीक हो कर उसने ऐसा बहुत कुछ पाया अलौकिक नूर से सराबोर कर दिया। कभी कभी उसके वचन किसी प्रवचन की तरह लगने लगे। एक बार सोशल मीडिया पर उसकी कोई पोस्ट देखी जो सीधा दिल में उतरती गई। उस पर जो कुमेंट लिखा उसकी एक प्रति मैंने यहां भी कहीं संभाल ली। आज पुराने रिकॉर्ड को देखते देखते यह पोस्ट भी सामने आ गई। बहुत कोशिश की की जिस रचना पर यह कुमेंट था वो भी मिल जाए लेकिन वह नहीं मिल सकी। खैर कोशिश जारी रहेगी। जैसे ही वह मूल पोस्ट मिली उसे भी जोड़ा जाएगा इसके साथ। फ़िलहाल तो आप कुमेंट ही पढ़िए।

जी यदि यह कल्पना भी है तो भी यह कहानी-या पोस्ट उन हकीकतों का पता देती है जो हमारे समाज और ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं--वास्तव में लोगों की ज़िन्दगी में इतने दुःख हैं कि वे अपने इन दुखों को खुद ही भूल जाते हैं--भुलाने की लाख कोशिशों के बावजूद ये यादें दिल और दिमाग के किसी कोने में पड़ी रह जाती हैं-- बहुत से चेहरे जहन में रह जाते हैं जिनके नाम और पते तो भूल जाते हैं लेकिन उन चेहरों में अव्यक्त मोहब्बत का संदेश बरबस ही सामने आता रहता है--

जनाब फैज़ अहमद फैज़ साहिब की एक लोकप्रिय गज़ल है जिसका शुभारम्भ कुछ इस तरह से होता है--

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के!
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के!

सवाल है कितने लोग याद रख पाते हैं--इस हार को--इस जीत को--इस हादसे को--इस गम को---दुनियादारी और रोज़ी रोटी बहुत कुछ भुला देती है--इसमें ही आगे जा कर एक शेयर आता है--

वीराँ है मय-कदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास हैं
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के---
--इस तरह की स्वीकारोक्ति भी सभी के बस में नहीं होती--न ही किस्मत में--

कोई माने या न माने यह उदासी--यह गम उम्र भर पीछा करते हैं--नाम भूल जाते हैं--चेहरे भी भूल जाते हैं--पते भी--स्थान भी--लेकिन मोहब्बत का गम याद रहता है-कभी कभी -यही गम किसी न किस गुस्से में तब्दील भी होता है और कोई ज्वाला जनून बन कर भड़क उठती है--क्रांति के हर नायक और यहाँ तक कि कई बार ज़िंदगी के खलनायक के दिल को भी कभी कुरेदा जा सके तो कुछ इसी तरह की कहानी---सच्ची कहानी मिलेगी--

आगे चल कर फैज़ साहिब आपकी पोस्ट जैसी ही बात तो करते हैं--
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के---

ज़िंदगी की बेचैनियाँ बहुत कारणों से पैदा होती हैं और कई बार दिल दिमाग में जमा भी होती हैं--बहुत सी बिमारियाँ, बहुत से सकून...बहुत सी मस्तियाँ--इसी तरह की बातों से जुडी हुई हैं-- यह बात अलग है कि हम इस तरह की हकीकतों को कल्पना कह कर पीछा छुड़वा लेते हैं--और कोई आसान रास्ता भी तो नहीं होता---सच्ची बातें कल्पना के आवरण में ही लिखी जा सकती हैं--कई बार तो स्पष्टीकरण भी देना पड़ता है--यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है--यदि कोई नाम या स्थान मिलता जुलता निकल आए तो वह महज़ संयोग ही होगा---इसकी हम कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते--

आपको इस ज़ोरदार रचना के लिए एक बार फिर हार्दिक बधाई--!

झंडों, विवादों और विचारधाराओं का जाने अनजाने प्रचार करते करते हम इस तरह के पूरी तरह व्यक्तिगत ग़मों को अक्सर सच में भी भूल जाते हैं--!

अंदर ही अंदर खुद को बहादुर भी समझते हैं---कि देखा हमने सब भुला दिया---!

कई लोग खुल कर नहीं रो पाते--वे छुप कर रोते हैं--एक कहावत सी है न--मर्द को दर्द नहीं होता--!

अफ़सोस कि हमारे समाज में सफलताओं के महल मोहब्बत के शवों पर ही खड़े होते हैं-बहुत कम लोग व्यक्तिगत प्रेम को संसार और ब्रहमांड के प्रेम में बदल पाते हैं--शायद यही होती है अध्यात्मिक साधना--- शायद यहीं से शुरू होता है नए जन्मों का खेल और चाहत---हम सोच लेते हैं जो इस जन्म में नहीं मिला--वो अगले जन्म में मिलेगा ही--

ओशो ने भी जन्मों की बाते बहुत अच्छे से की है--!

तिब्बत से जुड़े लोग कई बार मुझे मैक्लोडगंज में मिलते रहे हैं--उनकी थ्यूरी भी दमदार तो है--उनके मेडिसिन सिस्टम का एक विशेष सेक्शन ज्योतिष और जन्म के समय को लेकर ही काम करता है--इसी पर आधारित है इलाज--

आपकी इस रचना ने मुझे से भी यहां कितना कुछ लिखवा लिया--अगर यह कल्पना भी है तो बेहद ज़ोरदार है-

कभी इस पर भी कल्पना कीजिए कि कब ऐसा समाज बनेगा--जिसमें ऐसा सब कुछ न हो!
---रेक्टर कथूरिया ----आराधना टाइम्स

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