एक और सवा रूपए में बन जाया करता था दैनिक बस पास
सन 1969 में साहिब श्री गुरु नानक देव जी के 500 वर्षीय प्रकाश उत्सव के समारोह चल रहे थे। जगह जगह उत्सव, श्रद्धा और आस्था का माहौल था। उन्हीं दिनों उत्तर भारत को एक महान यूनिवर्सिटी भी मिली। अमृतसर शहर में स्थित गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी की अपनी अलग पहचान और एतिहासिक महत्व सभी जानते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस विश्वविद्यालय को सिखों के प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी के 500वें प्रकाशोत्सव के मौके स्थापित करने का एलान किया गया था। उसी वर्ष इसका नींव पत्थर रखा गया था। इसी वजह से ही इसका नाम गुरु साहिब के नाम पर रखा गया है। उनदिनों हालात के मद्देनज़र मैं अमृतसर में था। खालसा कालेज के गेट से गयर्ने एयर अंदर भी आना जाना होता रहता था। वहां से कहीं और जाने का मन भी नहीं था लेकिन इंसानी इच्छा कब पूरी होती है। अक्सर जो सोचो उसके विपरीत हालात बन जाते हैं।
मेरे बारे में भी परिवार का फैसला कुछ अचानक ही हुआ कि मुझे अब दिल्ली जाना होगा। बार बार जगह बदली के कारणों पर किसी अलग पोस्ट में लिखा जाएगा। अमृतसर से दिल्ली शायद ट्रेन से यह मेरा पहला सफर था। दस या ग्यारह बरस की उम्र रही होगी उस समय मेरी।
अमृतसर बहुत बड़ा और वंदनीय स्थल है लेकिन दिल्ली के बारे में कहा जाता था कि दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का! यह तो तीर्थ है सारे जहान का? यह गीत उन दिनों रेडियो पर भी बहुत बजता था। दिल्ली की चर्चा सुनी थी या किताबों में पढ़ा था लेकिन दिल्ली को अपनी आंखों से पहली बार देखना था।
ट्रेन के दिल्ली पहुंचते पहुंचते अंधेरा छाने लगा था। रेलवे स्टेशन पर पिता जी लेने आए हुए थे। रेलवे स्टेशन से सीधा घर पहुंचे। घर में मां थी जो बहुत देर बाद मिली थी। उसके ख़ुशी के वो आंसू मुझे आज भी याद हैं।
उसके बाद नींद भी महसूस होने लगी। नींद के बावजूद दिल्ली की अखबारों पर एक संक्षिप्त सी नज़र डाली। बुरे से बुरे हालात में भी हमारे घर अखबार आती रही थी। अख़बार का आना कभी बंद नहीं हुआ। हां! पंजाबी की कोई अखबार वहां नहीं थी लेकिन वहां के लोकप्रीज़ अख़बार नवभारत टाईम्स और दैनिक हिंदुस्तान बहुत अच्छे लगे। वे छपाई में रंग बिरंगे अखबार तो नहीं थे लेकिन एक रंग में भी बहुत खूबसूरत लगते थे जैसे किसी समझदार शख्सियत से बातें हो रही हों।
पंजाब की अखबारों में अभी तक यह छवि महसूस नहीं हुई थी। इनमें नौजवानी जैसा जोश था। लड़कपन वाली छवि भी कह सकते हैं। व्यक्तिगत तौर पर एक दूसरे के खिलाफ लिखना जालंधर की अखबारों का रूटीन बन चुका था। पहले पहल प्रताप, मिलाप और हिंद समाचार में यह सिलसिला तेज़ हुआ था जिसमें कुछ समय बाद पंजाबी अखबार भी शामिल हो गए थे। उन दिनों जालंधर में अजीत, अकाली पत्रिका, कौमी दर्द और जत्थेदार अखबार भी शामिल हो गए थे। हां कामरेड विचारधारा को समर्पित अखबार नवां ज़माना अपनी अलग मस्ती में चला जाता था। इस अख़बार के छवि बहुत गंभीरता वाली थी।
दिल्ली की अखबारों में पंजाब अखबारों जैसी कोई बात नज़र नहीं आती थी। दिल्ली की अखबारों में छपती सामग्री कुछ अधिक वरिष्ठ किस्म की हुआ करती थी। राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय समझ विकसित हुआ करती थी। इसके साथ ही आर्थिक और समाजिक मुद्दों पर भी चर्चा रहती थी।
इन अखबारों के पढ़ते पढ़ते ही शुरू हुआ दिल्ली में घूमने का सिलसिला। यह सब डीटीसी की बसों में सफर करके ही संभव था। आटो रिक्शा या टैक्सी की तो कल्पना भी मुश्किल लगती थी।
डीटीसी की बस में बैठ कर कभी कभी डबल देकर का मज़ा ही लेते थे। जब दिल्ली में कहीं निकलते तो तेज और इंकलाब जैसी अखबारें बस स्टैंडों पर बिकती नज़र आती खास कर संध्या अखबारें। यह अखबार पांच पैसे में मिल जाया करते थे। एक ही पृष्ठ दोनों तरफ छपा होता था। बाद में दो पृष्ठ भी होने लगे थे। फिर ज़्यादा भी। डबल देकर में बैठ कर उस अख़बार तो लगता अपने मोबाईल चौबारे बैठे पलट रहे हों। बस अख़बार पढ़ने के उस शाही अंदाज़ की फीलिंग लेते समय चाय वाली प्याली की कमी खटकती रहती।
पहले एक रुपया और फिर जल्द ही सवा रुपए से पूरे दिन का पास बना करता था। पहले पहल केवल रविवार और फिर जल्द ही हर रोज़ बनने लगा था। उस समय सत्तर का दशक शुरू हो चुका था। इन बसों का सफर आम जनता के लिए लाइफ लाइन की तरह था। इन बसों से पूरी दिल्ली नहीं तो काफी दिल्ली रोज़ घूमी जाती थी।
डीटीसी बसों में सफर के लिए एक रुपए वाला वह दैनिक पास बनवाने से एक्सप्रेस बसों में चढ़ने पर पांच पैसे की एक्स्ट्रा टिकट भी अलग से लेनी पड़ती थी जो कि झमेला ही था पर अगर सवा रुपए वाला पास टिकट बना लिया जाता तो यह झंझट नहीं रहता था। इस तरह पूरी दिल्ली बिना कोई दूसरी टिकट लिए घूमी जाती थी। दैनिक पास और मंथली पास का बहुत अच्छा सिस्टम मोहाली चंडीगढ़ में चलती सी टी यू (CTU) की बसों में भी है लेकिन यहां खरड़ से छह फेस तक दस रूपये की टिकट बावजूद लेनी पड़ती है। आती बार भी और जाती बार भी। कुछ अन्य मार्गों पर भी दस या पंद्रह रूपये लगते हैं।
यही फॉर्मूला बाद में रेलवे ने भी सुपर टिकट वाला MST अर्थात मंथली सीजनल टिकट जारी करते वक्त अपनाया था। उन दिनों अमृतसर दिल्ली के दरम्यान तीन या चार पास बना करते थे। कारोबारी लोग अमृतसर दिल्ली के दरम्यान हर रोज़ सफ़र किया करते थे। टिकेट के लिए लंबी लाइन से भी छुटकारा हुआ रहता था। ये लोग सुबह घर से नाश्ता करके तड़के तड़के दिल्ली के लिए निकलते। दोपहर का भोजन दिल्ली में करते कर रात का भोजन घर लौट कर किया करते। रस्ते वाली चाय उस समय ट्रेन में ही बहुत अच्छी मिलती थी।
दिल्ली में बहुत शानदार बसें चलती हैं लेकिन फिर भी मन से डीटीसी बसों की याद नहीं जाती। उस समय डीटीसी ही थी दिल्ली वालों की सफर वाली लाइफ लाइन। अगर आपने भी इनमें सफर किया था तो आपको भी याद होगा डीटीसी बसों का जादू।
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