Sunday, November 2, 2025

काश वे सब होते तो बन ही जाती चाइना गेट की पंजाब टीम भी

Saturday:01st November 2025 at 02:15 AM मुझे याद है ज़रा ज़रा...!

एक दिन डाक्टर भारत भी चल बसे और जल्द ही ओंकार पुरी भी


लुधियाना: 1 नवंबर 2025: (रेक्टर कथूरिया/ /मुझे याद है ज़रा ज़रा . ..!)::

ओंकार पुरी साहिब 2012 से लेकर इसके बाद वाले कुछ बरसों तक हम साथ ही रहे। तकरीबन हर रोज़ मुलाकात होती। वास्तव में  मेरी जान पहचान ही इन लोगों से 2012 में हुई  जब हम लोग सुब्हानी बिल्डिंग और मोचपुरा बाजार वाला संकरा  इलाका छोड़ कर सिविल लाइंस वाले कुछ खुले इलाके में आ गए। यहां ओंकार पूरी डा. भारत के अनन्य मित्र थे और मेरा भी डा. भारत से दिल और रूह का रिश्ता था। उनका अध्यात्म की दुनिया में काफी ज्ञान था। जाम और अध्यात्म की खुमारी वाले लोग बहुत कम मिलते हैं। डा. भारत उन्हीं में से थे। काश वे सब होते तो बन ही जाती चाईना गेट जैसी पंजाब की टीम भी। 

यहां सिविल लाईन्ज़ में आ कर हमारे घर के नज़दीक ही था डाक्टर भारत का दफ्तर। इस दफ्तर में मीडिया भी चलता था और डिटेक्टिव एजेंसी जैसा काम भी। पुरी साहिब उनके काम में बहुत निकट वाले दोस्त थे। शायद इनका पद भी प्रसधन या महासचिव जैसा रहता था। इस लिए तकरीबन हर रोज नहीं तो दूसरे तीसरे दिन मुलाकात हो ही जाती। उनका यह साथ उनकी आखिरी सांस तक बना भी रहा। व्यवसाय से वह अकाउंटेंट थे। एकाउंट्स की बारीकियों को समझने वाले थे। नई आर्थिक नीतियों और टेक्स इत्यादि की उलझनों की भी उन्हें पूरी समझ थी। 

उनके ग्राहकों में बहुत बड़े लोग भी थे जिनके आर्थिक फायदे की बात का ध्यान रखना उन्हें आता था। उनके कुछ ग्राहक तरनतारन के पट्टी इलाके में थे। यह शायद उनका पुश्तैनी इलाका ही था। वह हफ्ते दो तीन या कभी कभी चार दिन पट्टी जाया करते। उनकी ज़िद भी थी कि जाते थे अपनी स्कूटरी पर। चलाते भी बहुत तेज़ रफ़्तार में। जब वह बस पर सफर की बात नहीं माने तो हमने उन्हें मनाया कि आप काम वाले तीन चार दिन पट्टी में ही रहा करो। हर रोज स्कूटरी का इतना लंबा सफर मत किया करो। पट्टी से लुधियाना तक। अच्छा भला इंसान बस या कार में भी इतने लंबे सफर में थक जाता है। 

खैर उन्होंने हर रोज़ स्कूटर के सफर की ज़िद छोड़ ही दी। वास्तव में बस पर चढ़ने के लिए बनी ऊंची सीढ़ियां उनके घुटनों में दर्द छेड़ देती थी। इसके लिए वह डाक्टर भारत की सलाह से एक बड़ी सी बोतल वाली आयुर्वेदिक दवाई भी पिया करते थे। कैप्सूल भी इस दवा में शामिल रहते। दोनों दवाएं महंगी हुआ करती पर उनकी जेब इतना खर्चा आसानी से उठा लेती थीं। 

जब भी मिलते तो शाम का अरेंजमेंट कर के रखते थे। बस सूरज ढलते ही वह स्कूटर की डिक्की से सामान निकाल लाते। दोमोरिया पुल वाली मार्किट में प्रीतम का ढाबा बहुत पुराना था। शायद अब भी होगा लेकिन पिछले कुछ बरसों से उधर आनाजाना भी नहीं हुआ। प्रीतम की ज़िंदगी में प्रीतम से भी बहुत प्यार रहा क्यूंकि उसके पड़ोस में ही एक अखबार भी निकला करता था। अजीब इत्तिफ़ाक़ की जब अखबार के मालिक ने उस दूकान को बेचा तो वहां शराब का बहुत बड़ा ठेका खुल गया। हम हंसा करते देख ले प्रीतम तेरे और तेरे ढाबे के असली साथी बहुत नज़दीक आ गए। 

समय का चक्र चलता रहा। प्रीतम का देहांत हो गया। फिर ढाबा उसके बेटे ने संभाल लिया। प्रीतम के बेटे ने भी अपने पिता की तरह आपसी प्रेम प्यार को बनाए रखा। किसी दिन नहीं जा पाते और आँख बचा कर निकलने लगते तो झट से आ कर रास्ता रोक लेता। हम बताते आज राशनपानी का खर्चा जेब में नहीं है। 

इस पर नाराज़ हो कर बोलता। .मैं हूँ न अभी। बस चलो। ढाबे से लड़को को आवाज़ देता कि चल इनके स्कूटरों को साइड पर लगा और हमें खुद बाज़ू से पकड़ता और बहुत प्रेम से ढाबे में ले जाता। ढाबे में ले जाकर पांच सौ के दो   नोट डाक्टर भारत साहिब के सामने रखता और कहता जिस ब्रांड की भी मंगवानी है मंगवा लो। जो खाना है उसका आर्डर दे दो मैं अभी भिजवाता हूँ। खुद बाहर काउंटर पर जा कर बैठ जाता। इसके बाद एक दो बार चक्र भी लगा जाता लेकिन उसने खुद कभी हमारे साथ दारू नहीं पिया। हमने कई बार गिला  भी किया तो कहने लगा आप लोग वोडका पीते हो और मेरा ब्रांड और है। किसी दिन बैठेंगे ज़रूर। लेकिन वह दिन कभी न आया। बस हम बैठते और शाम ज़्यादा ढलने लगता निकलपड़ते। पुरी साहिब ने लुधियाना में भी शिमलापुरी जाना होता था। बस कुछ देर हवा प्याज़ी हो कर हम वापिसी की तयारी करते। बस उन दिनों यही थी हमारी दुनिया। अब जिसकी यादें शेष हैं। 

हम लोगों के जिन गिने चुने कुछ मित्रों की एक छोटी सी दुनिया थी उस में में पुरी साहिब काफी सरगर्म रहे। उनकी याद आई तो सोचा किस के साथ बात करें। आखिर एक धड़ल्लेदार संगठन बेलन ब्रिगेड की संस्थापिका अनीता शर्मा जी और उनके पति श्रीपाल जी का ध्यान आया। उनसे बात की तो उन्होंने ने भी बहुत नम आंखों से उन्हें याद किया। डाक्टर भारत और अनीता शर्मा जी की टीम के साथ डाक्टर भारत और पुरी साहिब भी काफी सक्रिय रहते रहे। हर बरस 26 जनवरी और 15 अगस्त को जब डाक्टर भारत कार्क्रम का आयोजन करते तो सरगर्मी शुरू होते ही अनीता शर्मा सुबह सुबह लडडू के पचार डिब्बे ले कर पहुँच जाते। कुछ और लोग भी थे जो अपना अपना योगदान बहुत श्रद्धा से डालते। कई नाम हैं जिनकी चर्चा फर्क कभी करेंगे। 

एक बार एक जज मैडम ने वहां पहुँच कर तिरंगा लहराया। कई बार कोई न कोई एम एल ए या सासंद इस ध्वज को लहराता। कुछ न कुछ वीआईपी ज़रूर पहुँचते। डाक्टर भारत पुरी साहिब और हम सभी ने मिल कर अपने इस संगठन को नाम दिया हुआ था चाईना गेट। बिलकुल इसी नाम पर बानी फिल्म वाली टीम की तरह इरादे थे। बस एक दिन दिल दिमाग पर कुछ बोझ पड़ा  और डाक्टर भारत चल पड़े। चाईना गेट टीम का अस्तित्व डाक्टर भारत के बाद ही खतरे में आ गया था। उनसे कहा भी कि इसको बचाने के लिए कुछ कर सकते हो तो जल्दी कर लो वरना कुछ भी सम्भाला न जाएगा।काश डाक्टर भारत ने यह सभी इंतज़ाम अपने होते होते कर लिए होते। उनसे बहुत बार कहा भी थी मान भी जाते रहे लेकिन वक़्त और हालात उन्हें फिर किसी नई उलझन में उलझा देते थे।

आखिर वही हुआ जिसका खतरा था। काश डाक्टर भारत सब अपनी आंखों से देख पाते। उनके जाने के बाद उस नाज़ुक घड़ी में चाईना गेट टीम के सभी दो चार सदस्यों का जो नैतिक कर्तव्य भी था इसे बचाने का वह भी मंद पड़ता गया। अंग्रेजी में शायद इसे  Moral Duty भी कहा जाता है। अर्थात नैतिक कर्तव्य। मैंने सभी से कहा भी कि किसी तरह इन स्मृतियों को संभाल लिया जाए वरना वक़्त के साथ साथ हमारी ज़मीर और भगवान भी हम लोगों को कभी माफ नहीं करेंगे। कई मित्रों से कहा लेकिन सब व्यर्थ गया। डाक्टर भारत के बाद न इस संगठन को बचाया जा सका और न ही इस विचार को। 

डाक्टर भारत के बाद ओंकार पुरी भी चल बसे। कोरोना डाक्टर भारत के रहते ही गंभीर हो गया था। फिर स्थिति और बिगड़ती चली गई। उदास मन से हमने भी लुधियाना छोड़ दिया। अब भी जब कभी लुधियाना जाना होता है तो उस इलाके में जाने का मन ही नहीं होता। उदासी लगातार गहराई हुई है। बस एक बार फिर से मानना पड़ता है कि जाने वाले कभी नहीं आते - --जाने वालों की याद आती है। 

इन यादों में से जब जब भी किसी याद ने ज़ोर पकड़ा और कुछ लिखा भी गया तो ज़रुर दोबारा हाज़र हो जाऊंगा कोई न कोई नई रचना ले कर।  तब तक के लिये आज्ञा चाहता हूं। 

Sunday, October 12, 2025

राकेश वेदा जी से पहली भेंट

Received From Mind and Memories on Thursday 9 October 2025 at 02:30 AM and Posted on 12th October 2025 

बहुत दिलचस्प हैं इप्टा वाले राकेश वेदा 

जालंधर नवांशहर मार्ग पर स्थित है खटकड़कलां। पर्यावरण भी बहुत ही मनमोहक और इतहास भी सभी को अपना बना लेने वाला। मुख्यमार्ग पर ही स्थित है शहीद भगत सिंह जी की यादें ताज़ा करने वाला शानदार स्मारक। 

कुछ बरस पहले की बात है। जगह थी खटकड़ कलां।"ढाई आखर प्रेम के"-यह था काफिले का नाम। इस ऐतिहासिक स्थान से शुरू हो कर इस काफिले ने पूरे पंजाब के गांव गांव में जाना था। बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता और तेज़ होती जा रही नफरत की सियासत के खिलाफ कुछ प्रगतिशील लोग इप्टा के बैनर तले खुल कर सामने आए हुए थे। "ढाई आखर प्रेम के......."  इस संदेश को गांव गांव के घर घर तक पहुँचाया जा रहा था। शहीद भगत सिंह के पैतृक गाँव से इसकी शुरुआत सचमुच बहुत असरदायिक थे। आसपास के गाँवों से भी बहुत से लोग वहां पहुंचने लगे थे। पंजाब की तरफ से मेहमाननवाज़ी करने वालों में देविंदर दमन भी थे, संजीवन सिंह भी, इंद्रजीत रूपोवाली भी और बलकार सिंह सिद्धू भी पूरे जोशो खरोश के साथ मौजूद थे।  

राकेश वेदा जी से पहली भेंट हुई थी खटकड़ कलां वाले मुख्य हाइवे पर जहां शहीद भगत सिंह जी की स्मृति में बहुत बड़ा सरकारी स्मारक बना हुआ है। इसी इमारत के पीछे है शहीद भगत सिंह जी का पुश्तैनी घर। वहां अब भी बहुत सी स्मृतियाँ शेष हैं। बाहर वाली सरकारी इमारत के गेट से बाहर निकल कर एक सड़क इसी पार्क के साथ साथ चलती हुई शहीद के पुश्तैनी घर तक ले जाती है। 

इससे पहले कि काफिला चल कर शहीद के पुश्तैनी घर तक जाए हम लोग इस रुट और अन्य प्रोग्राम को डिसकस कर रहे थे। मैं वहां कवरेज के लिए गया था। कैमरे के साथ साथ एक नोटबुक भी मेरे पास थी। जो जो लोग बाहर से आए थे उनके नाम स्टेशन और फोन नंबर उसी में नोट किए जा रहे थे। चूंकि मेरे कानों में काफी समय से समस्या चल रही है इसलिए मुझे डर रहता है कि कहीं नंबर या नाम गलत न सुना जाए। मैं जिसका नाम या नंबर नोटों करना चाहूँ उसके सामने अपनी नोट बुक कर देता हूं।  


मुझे याद है इप्टा के इस सक्रिय लीडर का कद लम्बा था और और नज़र हर तरफ ध्यान रख रही थी। सभी सदस्यों को साथ साथ बड़ी मधुरता से दिशा निर्देश भी दिए जा रहे था। जब मैंने उन्हें अपना मीडिया कवरेज का परिचय दिया तो साथ ही अपनी नोट बुक भी उनके सामने कर दी। उन्होंने अपना नाम लिखा राकेश वेद और साथ ही नंबर भी। 

नाम के साथ वेदा शब्द पढ़ कर मुझे दिलचस्पी और बढ़ गई और मैंने पूछा आप ने भी द्विवेद्वी ,  त्रिवेदी और चतुर्वेदी के नरः वेद पड़े हुए हैं क्या? बात सुन कर मुस्कराए और कहने लगे ऐसा कुछ नहीं है। वास्तव में मेरी पत्नी का नाम वेदा है। मैं अपने नाम के उनका नाम जोड़ लेता हूँ और वह अपने नाम के साथ मेरा जोड़ कर वेदा राकेश लिखती हैं।  

उस दिन हम सभी लोग शहीद भगत सिंह जी के पैतृक घर पर भी गए। इसके बाद छोटी बड़ी गलियों में से होते हुए पास ही स्थित एक गांव में बने गुरुद्वारा साहिब के हाल में भी। वहां नाटकों का मंचन भी हुआ। जनाब बलकार सिद्धू ने अपने भांगड़े वाली कला और बीबा कुलवंत ने अपनी आवाज़ की बुलंदी से अहसास दिलाया कि क्रान्ति आ कर रहेगी। शहीदों का खून रंग लाएगा। इसके बाद और दोपहर का भोजन भी यादगारी रहा। लंगर सचमुच बहुत स्वादिष्ट था। 

रात्रि विश्राम बलाचौर/ /नवांशहर की किसी महल जैसी कोठी में था। इप्टा के चाहने वाले बहुत ज़ोर दे कर हमें वहां ले गए थे। रात्रि भोजन के बाद कुछ मीठा सेवन करते समय किसी ने कहा कि अब हालात बहुत कठिन बनते जा रहे हैं। सत्ता और सियासत शायद खतरनाक रुख अख्त्यार कर सकती है।  यह सब सुन कर राकेश जी ने उर्दू शायरी में से ग़ालिब साहिब की शायरी भी सुनाई और दुष्यंत कुमार जी के शेयर भी। इस शायरी से सभी में नई जान आ गई। 

अब कोशिश है जल्द ही उनसे मिलने लखनऊ जाया जा सके। वैसे तो भेंट का इत्तिफ़ाक़ कहीं अचानक बी हो सकता है किसी अन्य जगह पर भी।  --रेक्टर कथूरिया 

Saturday, March 1, 2025

शायद जन्मों जन्मान्तरों तक भी विसर्जित नहीं हो पाती यादें...!

पहली मार्च 2025//याद न जाए बीते- दिनों की....!

बहुत सी बातों के सबूत नहीं होते लेकिन उन पर कमाल का यकीन उम्र भर बना रहता है---!

विसर्जन नहीं हो पाता शायद इसी लिए करनी पड़ती है मुक्ति के लिए साधना


कर्मकांड होता तो शायद विसर्जन भी हो जाता--!

न भी होता तो कम से कम तसल्ली तो हो जाती--!

लेकिन सचमुच विसर्जन हो ही कहां पाता है....!

शायद जन्मों जन्मान्तरों तक भी विसर्जित नहीं हो पाती यादें...!

इसकी याद दिलाई नूतन पटेरिया जी ने। उनकी हर पोस्ट कुछ नए अनुभव जैसा दे जाती है।

कुछ स्थान--कुछ लोग--कुछ रेलवे स्टेशन--कुछ ट्रेनें-कुछ रास्ते--कुछ यात्राएं---शायद इसी लिए याद आते हैं..!

उनसे कोई पुकार भी आती हुई महसूस होती है---!

कुछ खास लोगों की कई अनकही बातें भी शायद इसीलिए सुनाई देती रहती हैं---क्यूंकि किसी न किसी बहाने उनसे मन का कोई राबता जुड़ा रहता है..!

बहुत सी बातों के सबूत नहीं होते लेकिन उन पर कमाल का यकीन उम्र भर बना रहता है---!

मुझे लगता है इस सब पर विज्ञान निरंतर खोज कर रहा है---!

एक गीत बहुत लोकप्रिय हुआ था--

तेरा मुझसे है पहले का नाता कोई--- यूं ही नहीं दिल लुभाता कोई..!

ऐसी भावना और ऐसे अहसास शायद उन्हीं यादों के चलते होते हैं जो कभी विसर्जित नहीं हो पाती---!

यह बनी रहती हैं..कभी बहुत तेज़--कभी बहुत धुंधली सी भी..!

यह कभी भी विसर्नजित नहीं हो पाती...न तो उम्र निकल जाने पर--न देहांत हो जाने पर और न ही शरीर बदल जाने पर-----!

शायद यही कारण होगा कि धर्मकर्म और मजहबों में स्मरण अर्थात याद पर ज़ोर दिया जाता है....!

जाप एक खूबसूरत बहाना है इस मकसद के लिए..!

एकागर होने पर ही बुद्धि ढूँढ पाती है--- दिमाग या मन के किसी न किसी कोने में छुपी उन यादों को जो विसर्जित नहीं हो पाती---!

कभी विसर्जित न हो सकी इन यादों का यह सिलसिला लगातार चलता है...संबंध बदलते हैं..जन्म बदलते हैं..जन्मस्थान भी कई बार बदलते हैं...लेकिन अंतर्मन में एक खजाना चूप रहता है...!

नागमणि की तरह रास्तों को प्रकाशित भी करता रहता है...और शक्ति भी देता रहता है...!

कुंडलिनी की तरफ सोई यादें जब कभी अचानक जाग जाएँ तो उसमें खतरे भी होते हैं...!

अचानक ऐसी बातें करने वालों को मानसिक रोगी कह कर मामला रफादफा कर दिया जाता है लेकिन उनकी बातें निरथर्क नहीं होती...!

कुंभ जैसे तीर्थों में जा कर जब शीत काल की शिखर होती है तो ठंडे पानी में लगे गई डुबकी बहुत कुछ जगाने  लगती है...!  श्रद्धा और आस्था से इसे सहायता मिलती है...!

यदि ऐसे में किसी का तन मन हल्का हो जाता है तो समझो बहुत सी यादें विसर्जित हो गई...!

बहुत से पाप धुल गए--...!

बहुत सी शक्ति मिल गई...!

अधूरी इच्छाएं और लालसाएं..उसी धरमें बह गई---

इसे ही कहा जा सकता है मुक्ति मिल गई...!~

---रेक्टर कथूरिया 

Thursday, October 10, 2024

अब भी याद है दिल्ली वाली डीटीसी बसों का जादू

एक और सवा रूपए में बन जाया करता था दैनिक बस पास 


चंडीगढ़//मोहाली: 10 अक्टूबर 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा डेस्क)::

सन 1969 में साहिब श्री गुरु नानक देव जी के 500 वर्षीय प्रकाश उत्सव के समारोह चल रहे थे। जगह जगह उत्सव, श्रद्धा और आस्था का माहौल था। उन्हीं दिनों उत्तर भारत को एक महान यूनिवर्सिटी भी मिली। अमृतसर शहर में स्थित गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी की अपनी अलग पहचान और एतिहासिक महत्व सभी जानते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस विश्वविद्यालय को सिखों के प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी के 500वें प्रकाशोत्सव के मौके स्थापित करने का एलान किया गया था। उसी वर्ष इसका नींव पत्थर रखा गया था। इसी वजह से ही इसका नाम गुरु साहिब के नाम पर रखा गया है। उनदिनों हालात के मद्देनज़र मैं अमृतसर में था। खालसा कालेज के गेट से गयर्ने एयर अंदर भी आना जाना होता रहता था। वहां से कहीं और जाने का मन भी नहीं था लेकिन इंसानी इच्छा कब पूरी होती है। अक्सर जो सोचो उसके विपरीत हालात बन जाते हैं। 

मेरे बारे में भी परिवार का फैसला कुछ अचानक ही हुआ कि मुझे अब दिल्ली जाना होगा। बार बार जगह बदली के कारणों पर किसी अलग पोस्ट में लिखा जाएगा। अमृतसर से दिल्ली शायद ट्रेन से यह मेरा पहला सफर था। दस या ग्यारह बरस की उम्र रही होगी उस समय मेरी। 

अमृतसर बहुत बड़ा और वंदनीय स्थल है लेकिन दिल्ली के बारे में कहा जाता था कि दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का! यह तो तीर्थ है सारे जहान का? यह गीत उन दिनों रेडियो पर भी बहुत बजता था। दिल्ली की चर्चा सुनी थी या किताबों में पढ़ा था लेकिन दिल्ली को अपनी आंखों से पहली बार देखना था। 

ट्रेन के दिल्ली पहुंचते पहुंचते अंधेरा छाने लगा था। रेलवे स्टेशन पर पिता जी लेने आए हुए थे। रेलवे स्टेशन से सीधा घर पहुंचे। घर में मां थी जो बहुत देर बाद मिली थी। उसके ख़ुशी के वो आंसू  मुझे आज भी याद हैं। 

उसके बाद नींद भी महसूस होने लगी। नींद के बावजूद दिल्ली की अखबारों पर एक संक्षिप्त सी नज़र डाली। बुरे से बुरे हालात में भी हमारे घर अखबार आती रही थी। अख़बार का आना कभी बंद नहीं हुआ। हां! पंजाबी की कोई अखबार वहां नहीं थी लेकिन वहां के लोकप्रीज़ अख़बार नवभारत टाईम्स और दैनिक हिंदुस्तान बहुत अच्छे लगे। वे छपाई में रंग बिरंगे अखबार तो नहीं थे लेकिन एक रंग में भी बहुत खूबसूरत लगते थे जैसे किसी समझदार शख्सियत से बातें हो रही हों। 

पंजाब की अखबारों में अभी तक यह छवि महसूस नहीं हुई थी। इनमें नौजवानी जैसा जोश था। लड़कपन वाली छवि भी कह सकते हैं। व्यक्तिगत तौर पर एक दूसरे के खिलाफ लिखना जालंधर की अखबारों का रूटीन बन चुका था। पहले पहल प्रताप, मिलाप और हिंद समाचार में यह सिलसिला तेज़ हुआ था जिसमें कुछ समय बाद पंजाबी अखबार भी शामिल हो गए थे। उन दिनों जालंधर में अजीत, अकाली पत्रिका, कौमी दर्द और जत्थेदार अखबार भी शामिल हो गए थे। हां कामरेड विचारधारा को समर्पित अखबार नवां ज़माना अपनी अलग मस्ती में चला जाता था। इस अख़बार के छवि बहुत गंभीरता वाली थी। 

दिल्ली की अखबारों में पंजाब अखबारों जैसी कोई बात नज़र नहीं आती थी। दिल्ली की अखबारों में छपती सामग्री कुछ अधिक वरिष्ठ किस्म की हुआ करती थी। राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय समझ विकसित हुआ करती थी। इसके साथ ही आर्थिक और समाजिक मुद्दों पर भी चर्चा रहती थी। 

इन अखबारों  के पढ़ते पढ़ते ही शुरू हुआ दिल्ली में घूमने का सिलसिला। यह सब डीटीसी की बसों में सफर करके ही संभव था। आटो रिक्शा या टैक्सी की तो कल्पना भी मुश्किल लगती थी। 

डीटीसी की बस में बैठ कर कभी कभी डबल देकर का मज़ा ही लेते थे। जब दिल्ली में कहीं निकलते तो तेज और इंकलाब जैसी अखबारें बस स्टैंडों पर बिकती नज़र आती खास कर संध्या अखबारें। यह अखबार पांच पैसे में मिल जाया करते थे। एक ही पृष्ठ दोनों तरफ छपा होता था। बाद में दो पृष्ठ भी होने लगे थे। फिर ज़्यादा भी। डबल देकर में बैठ कर उस अख़बार  तो लगता अपने मोबाईल चौबारे बैठे  पलट रहे हों। बस अख़बार पढ़ने के उस शाही अंदाज़ की फीलिंग लेते समय चाय वाली प्याली की कमी खटकती रहती। 

पहले एक रुपया और फिर जल्द ही सवा रुपए से पूरे दिन का पास बना करता था। पहले पहल केवल रविवार और फिर जल्द ही हर रोज़ बनने लगा था। उस समय सत्तर का दशक शुरू हो चुका था। इन बसों का सफर आम जनता के लिए लाइफ लाइन की तरह था। इन बसों से पूरी दिल्ली नहीं तो काफी दिल्ली रोज़ घूमी जाती थी। 

डीटीसी बसों में सफर के लिए एक रुपए वाला वह दैनिक पास बनवाने से एक्सप्रेस बसों में चढ़ने पर पांच पैसे की एक्स्ट्रा टिकट भी अलग से लेनी पड़ती थी जो कि झमेला ही था पर अगर सवा रुपए वाला पास टिकट बना लिया जाता तो यह झंझट नहीं रहता था। इस तरह पूरी दिल्ली बिना कोई दूसरी टिकट लिए घूमी जाती थी। दैनिक पास और मंथली पास का बहुत अच्छा सिस्टम मोहाली चंडीगढ़ में चलती सी टी यू (CTU) की बसों में भी है लेकिन यहां  खरड़ से छह फेस तक दस रूपये की टिकट  बावजूद लेनी  पड़ती है। आती बार भी और जाती बार भी। कुछ अन्य मार्गों पर भी दस या पंद्रह रूपये लगते हैं। 

यही फॉर्मूला बाद में रेलवे ने भी सुपर टिकट वाला MST अर्थात मंथली सीजनल टिकट जारी करते वक्त अपनाया था। उन दिनों अमृतसर दिल्ली के दरम्यान तीन या चार पास बना करते थे। कारोबारी लोग अमृतसर दिल्ली के दरम्यान हर रोज़ सफ़र किया करते थे। टिकेट के लिए लंबी लाइन से भी छुटकारा हुआ रहता था। ये लोग सुबह घर से नाश्ता करके तड़के तड़के दिल्ली के लिए निकलते। दोपहर का भोजन दिल्ली में करते कर रात का भोजन घर लौट कर किया करते। रस्ते वाली चाय उस समय ट्रेन में ही बहुत अच्छी मिलती थी। 

दिल्ली में बहुत शानदार बसें चलती हैं लेकिन फिर भी मन से डीटीसी बसों की याद नहीं जाती। उस समय डीटीसी ही थी दिल्ली वालों की सफर वाली लाइफ लाइन। अगर आपने भी इनमें सफर किया था तो आपको भी याद होगा डीटीसी बसों का जादू। 

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Saturday, September 14, 2024

क्या सचमुच मिलती है यादों के उजालों से रौशनी?

क्यूं नहीं भुला पाते हम ज़िन्दगी की यादें?


चंडीगढ़
//मोहाली: 14 सितंबर 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)

जनाब बशीर बद्र साहिब के यूं तो कई शेयर प्रसिद्ध हुए हैं लेकिन एक शेयर यादों से सबंधित है जो जान जन की जुबां पर चढ़ गया। बशीर साहिब कहते हैं: 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो!

न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए!

बशीर साहिब का यह शेयर ज़िंदगी में एक रुमानियत सी लेकर आता है। इस शेयर   खौफ भी है। इस शाम में अँधेरा छाने का भी यकीन सा है। इस अंधेरे का सामना करने के लिए उन्हें रौशनी की उम्मीद नज़र आती है उस दौर की यादों से जो अब रहा ही नहीं। उस जाते हुए वक़्त  या जा चुके अतीत को एक तरह से वापिस बुलाते हुए वह अपनी महबूबा से कहते हैं कि 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो! न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए!

अब देखना यह है कि क्या सचमुच यादों से अँधेरी और अकेली ज़िन्दगी में उजाला हो भी जाता है क्या? वैसे तो बुढ़ापे की दस्तक तक से अधिकतर लोग डरने लगते हैं लेकिन शायरों की कल्पना और संवेदना कुछ ज़्यादा ही होती है। वह अँधेरे की कल्पना भी सहजता से कर लेते हैं और उसका  सहजता ज़िंदगी में अगर अंधेरा छा जाए तो बचपन की यादें, किशोर उम्र की यादे, स्कूल की यादें, दोस्तों की यादें, जवानी की यादें---यह सारा सिलसिला बुढ़ापे में ही क्यूं अपना रंग दिखाता है--ज़िंदगी कैसे इतनी प्रभावित हो जाती है इन यादों से....क्या इन का किसी भी किस्म का कोई  लाभ हो सकता है? इनसे होने वाला उजाला केवल कल्पना मात्र होता है या फिर सचमुच उजाले की किरणें रास्तों को रौशनाने लगती हैं!

बचपन, किशोरावस्था, स्कूल, दोस्तों और जवानी की यादें बुढ़ापे में इतने प्रभावशाली क्यों हो जाती हैं, इसका कारण यह है कि ये यादें हमारी ज़िंदगी के सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दौर से जुड़ी होती हैं। यह वो समय होता है जब हम सबसे ज्यादा अनुभव करते हैं, सीखते हैं, और हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जब हम बुढ़ापे में पहुंचते हैं, तो हमारे पास समय होता है और हम उन यादों को फिर से जीने लगते हैं। इन यादों में भावनात्मक और मानसिक जुड़ाव इतना गहरा होता है कि वे जीवन के अंतिम पड़ाव में भी हमारे साथ रहती हैं। गुज़रे हुए उस  सुनहरी दौर को याद करते ही हमारे अंदर एक ऊर्जा भी आती है। विजय और संघर्ष की भावना भी जागती है। हमें फिर से एक नै दुनिया  दिखाई देने लगती है। 

इन गहरी यादों का आध्यात्मिक लाभ भी हो सकता है। वे हमें आत्ममंथन करने का भी अवसर देती हैं, जिससे हम अपने जीवन के अनुभवों को समझ सकते हैं और उनसे सीख भी सकते हैं। यादें हमें यह समझने में मदद करती हैं कि हमने अपने जीवन में क्या खोया और क्या पाया। यह आत्मविश्लेषण हमें आध्यात्मिक रूप से परिपक्व बनने में  तो सहायता करता ही है इसके साथ ही हमें दुनियादारी के जहां रहस्य भी समझ आने लगते हैं। हम धोखे, फरेब दोगले चेहरों को सही वक़्त पर समझ पाने में सफल हो जाते हैं। 

इसके अलावा, गुज़रे हुए वक्त की ज़ेह यादें हमें जीवन की अस्थायित्वता का बोध कराती हैं और यह हमें वर्तमान क्षण में जीने की प्रेरणा दे सकती हैं। यादों के माध्यम से हम अपने जीवन के असली उद्देश्य को पहचान सकते हैं और अपने अंतर्मन से जुड़ सकते हैं। 

इस प्रकार, ये यादें केवल अतीत का प्रतिबिंब नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिक विकास का एक महत्वपूर्ण साधन भी हो सकती हैं। हम  परिवर्तनशील हालात से कर शाश्वत की पहचान करना सीख जाते हैं। शाश्वत में जीना एक महत्वपूर्ण जीवन होता है। 

Sunday, August 18, 2024

जब लक्ष्मी की दूरी इम्तिहान लेती है!

 उस समय घैर्य, सबर और सबूरी की परीक्षा भी होती है 


खरड़
(मोहाली):18 अगस्त 2022: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा):: 

यह कुछ पंक्तियों का वटसैप संदेश जैसा ही था जो अब शायद ईमेल जैसा बड़ा पत्र बनता जा रहा है। इसे मैंने नोट किया था 18 अगस्त 2022 को और शायद उन्हीं दिनों किसी मित्र को भेजा भी था। इसे डिलीट करने का भी मन नहीं किया। संदेश भेजने के बाद इसे सहेजा भी इसीलिए था कि शायद कभी इसे दोबारा पढ़ना पड़े। हालात का जायज़ा हो जाता है पुराने पत्र और मैसेज पढ़ने से। सोचा आज इसे पढ़ कर देखूं कुछ गलत तो नहीं लिखा था। उन दिनों आर्थिक तौर पर भी हालात गंभीर थे। हालत स्वास्थ्य के हिसाब से भी अच्छी नहीं थी और जेब के हिसाब से भी। अब ऐसे में या तो किसी चमत्कार की उम्मीद होने लगती है या फिर किसी शुभचिंतक को बताने की इच्छा भी हो जाती है। ज़िंदगी में कई बार ऐसे वक्त आते हैं जब अस्तित्व खतरे में लगने लगता है। ऐसे में किसी से कुछ न कुछ कहना ज़रूरी हो जाता है। बहुत सोच कर एक मित्र को समस्या बताई तो उन्होंने तुरंत हमदर्दी भी ज़ाहिर की और साथ ही पेटीएम नंबर भी मांग लिया। 

उस समय मैंने लिखा-मैं वैसे भी फॉर्मल नहीं हूँ। कोई औपचारिकता मुझे कभी अच्छी भी नहीं लगती। इसी लिए मुझे लगा आप ने जो पेटीएम नम्बर मांगा है वह शायद भगवत कृपा और भगवत प्रेरणा का ही परिणाम है।

इसके साथ समाजिक दुःख कहने से भी खुद को नहीं रोक पाया। यह सच है कि लेखक वर्ग ही शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाया करता है लेकिन लेखक ही शोषण का शिकार हो जाता है। कभी प्रकाशक उसका शोषण करते हैं तो कभी साहित्यिक कृतियों को बेचने वाले बाजार के कारोबारी और कभी बड़े बड़े आयोजनों के नाम पर बड़े बड़े संगठनों के पदाधिकारी।

फिर भी लेखक आयोजन के लिए इस्तेमाल  होने वाले हाल का किराया देते हैं। चायपानी समोसे का खर्च भी करते हैं। कुर्सियां मंगवाने का खर्च भी करते हैं। अक्सर कहा यही जाता है की यह सब कुछ आयोजन करने वाले संगठन के प्रबंधक ही करते हैं लेकिन अंदर का सच कुछ और ही होता है। 

लेकिन लेखक, पत्रकार और आयोजक साहित्यिक कवरेज करने को आए कलमकारों के लिए कुछ खर्च करना उचित नहीं समझते। देते भी हैं तो बड़े मीडिया घरानों को जिनके पास कोई कमी ही नहीं होती। शोषण भी आम तौर पर पहले से ही शोषितों का होता है। आयोजनों के रिकार्ड को साहित्यिक रिपोर्टिंग करने वाले ही सहेजा करते हैं। इसलिए इन की तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए बिना उनकी निष्पक्षता पर प्रभाव डाले। लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाता है। इस लिए अब बहुत से कार्यक्रमों और आयोजनों पर जाने का मन ही नहीं करता। 

फिर भी आपके फोन से एक नई आशा जगी। बदलते हालात की दस्तक सुनाई दी। इस वक्त गंभीर आर्थिक संकट में हूं लेकिन इसे सब को बताना कभी ज़रूरी नहीं लगा। 

आप सहजता और ख़ुशी से अपने वायदे के मुताबिक कुछ कर सकें तो बहुत अच्छी बात है पर न भी कर सकें तो भी कोई बात नहीं। मन पर बोझ न रखना। इतने सालों में पहली बार ही यह नौबत आई कि मजबूरी सी दिखने लगी। आपके आयोजन में आने से इनकार भी बुरा लग रहा था लेकिन आता हूँ तो आर्थिक मजबूरियां भी हैं। 

बारह दिन के बाद बुखार से उठा हूं। मित्र डाक्टरों से तो फोन पर ही कंसल्ट किया लेकिन दवाएं बहुत महंगी हो गई हैं। दो दिन में करीब 36 हज़ार रुपयों से भी अधिक  की पेमेंट करनी ज़रूरी है। बिजली, इंटरनेट, दूसरे शुल्क, यूनिवर्सिटी और अन्यों की सरकारी फीस इत्यादि।

इस वक्त आप कुछ उधार भी दे सकें तो बहुत मेहरबानी होगी।

जो भी स्थिति हो प्लीज़ एक आध घण्टे में बता ज़रूर दें।

डेढ़ दो घंटे के बाद कुछ राशि फोन पर आ गई। साथ ही मैसेज भी कि अगर स्वास्थ्य ठीक हो तो आयोजन से एक दिन पहले बता दें। गाड़ी भिजवा दी जाएगी। सही समय पर गाड़ी भी भिजवा दी गई। प्रोग्राम भी अटेंड किया। साथ में बेटी भी थी।  एक कैमरा असिस्टेंट भी ले लिया। आती बार फिर से हम तीनों के लिए तीन लिफाफे दे दिए गए। साथ ही लोई के साथ सम्म्मान भी किया गया। 

सोच रहा हूं क्या इस सहयोग सहायता को आयोजनों के रूटीन का नियमित हिस्सा बनाया जा सकता है क्या? कैमरे और कलम की मेहनत को समाज कब मेहनत मानेगा?

Friday, July 5, 2024

बहुत कुछ भूल जाता है लेकिन मोहब्बत का गम याद रहता है!

फिर भी सच्ची बातें कल्पना के आवरण में ही लिखी जा सकती हैं

खरड़ (मोहाली): 05 जुलाई 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

हरकी विर्क विर्क बहुत अच्छी लेखिका भी और बहुत अच्छी इंसान भी। उसके परिवार ने राजनैतिक विचारों के कारण बहुत सा उत्पीड़न भी सहा। इसका असर काफी देर तक उसकी मानसिकता पर भी बना रहा लेकिन वह जल्दी ही सम्भल गई। प्रकृति और अध्यात्म की दुनिया के नज़दीक हो कर उसने ऐसा बहुत कुछ पाया अलौकिक नूर से सराबोर कर दिया। कभी कभी उसके वचन किसी प्रवचन की तरह लगने लगे। एक बार सोशल मीडिया पर उसकी कोई पोस्ट देखी जो सीधा दिल में उतरती गई। उस पर जो कुमेंट लिखा उसकी एक प्रति मैंने यहां भी कहीं संभाल ली। आज पुराने रिकॉर्ड को देखते देखते यह पोस्ट भी सामने आ गई। बहुत कोशिश की की जिस रचना पर यह कुमेंट था वो भी मिल जाए लेकिन वह नहीं मिल सकी। खैर कोशिश जारी रहेगी। जैसे ही वह मूल पोस्ट मिली उसे भी जोड़ा जाएगा इसके साथ। फ़िलहाल तो आप कुमेंट ही पढ़िए।

जी यदि यह कल्पना भी है तो भी यह कहानी-या पोस्ट उन हकीकतों का पता देती है जो हमारे समाज और ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं--वास्तव में लोगों की ज़िन्दगी में इतने दुःख हैं कि वे अपने इन दुखों को खुद ही भूल जाते हैं--भुलाने की लाख कोशिशों के बावजूद ये यादें दिल और दिमाग के किसी कोने में पड़ी रह जाती हैं-- बहुत से चेहरे जहन में रह जाते हैं जिनके नाम और पते तो भूल जाते हैं लेकिन उन चेहरों में अव्यक्त मोहब्बत का संदेश बरबस ही सामने आता रहता है--

जनाब फैज़ अहमद फैज़ साहिब की एक लोकप्रिय गज़ल है जिसका शुभारम्भ कुछ इस तरह से होता है--

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के!
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के!

सवाल है कितने लोग याद रख पाते हैं--इस हार को--इस जीत को--इस हादसे को--इस गम को---दुनियादारी और रोज़ी रोटी बहुत कुछ भुला देती है--इसमें ही आगे जा कर एक शेयर आता है--

वीराँ है मय-कदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास हैं
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के---
--इस तरह की स्वीकारोक्ति भी सभी के बस में नहीं होती--न ही किस्मत में--

कोई माने या न माने यह उदासी--यह गम उम्र भर पीछा करते हैं--नाम भूल जाते हैं--चेहरे भी भूल जाते हैं--पते भी--स्थान भी--लेकिन मोहब्बत का गम याद रहता है-कभी कभी -यही गम किसी न किस गुस्से में तब्दील भी होता है और कोई ज्वाला जनून बन कर भड़क उठती है--क्रांति के हर नायक और यहाँ तक कि कई बार ज़िंदगी के खलनायक के दिल को भी कभी कुरेदा जा सके तो कुछ इसी तरह की कहानी---सच्ची कहानी मिलेगी--
आगे चल कर फैज़ साहिब आपकी पोस्ट जैसी ही बात तो करते हैं--
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के---

ज़िंदगी की बेचैनियाँ बहुत कारणों से पैदा होती हैं और कई बार दिल दिमाग में जमा भी होती हैं--बहुत सी बिमारियाँ, बहुत से सकून...बहुत सी मस्तियाँ--इसी तरह की बातों से जुडी हुई हैं-- यह बात अलग है कि हम इस तरह की हकीकतों को कल्पना कह कर पीछा छुड़वा लेते हैं--और कोई आसान रास्ता भी तो नहीं होता---सच्ची बातें कल्पना के आवरण में ही लिखी जा सकती हैं--कई बार तो स्पष्टीकरण भी देना पड़ता है--यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है--यदि कोई नाम या स्थान मिलता जुलता निकल आए तो वह महज़ संयोग ही होगा---इसकी हम कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते--

आपको इस ज़ोरदार रचना के लिए एक बार फिर हार्दिक बधाई--!

झंडों, विवादों और विचारधाराओं का जाने अनजाने प्रचार करते करते हम इस तरह के पूरी तरह व्यक्तिगत ग़मों को अक्सर सच में भी भूल जाते हैं--!

अंदर ही अंदर खुद को बहादुर भी समझते हैं---कि देखा हमने सब भुला दिया---!

कई लोग खुल कर नहीं रो पाते--वे छुप कर रोते हैं--एक कहावत सी है न--मर्द को दर्द नहीं होता--!

अफ़सोस कि हमारे समाज में सफलताओं के महल मोहब्बत के शवों पर ही खड़े होते हैं-बहुत कम लोग व्यक्तिगत प्रेम को संसार और ब्रहमांड के प्रेम में बदल पाते हैं--शायद यही होती है अध्यात्मिक साधना--- शायद यहीं से शुरू होता है नए जन्मों का खेल और चाहत---हम सोच लेते हैं जो इस जन्म में नहीं मिला--वो अगले जन्म में मिलेगा ही--

ओशो ने भी जन्मों की बाते बहुत अच्छे से की है--!

तिब्बत से जुड़े लोग कई बार मुझे मैक्लोडगंज में मिलते रहे हैं--उनकी थ्यूरी भी दमदार तो है--उनके मेडिसिन सिस्टम का एक विशेष सेक्शन ज्योतिष और जन्म के समय को लेकर ही काम करता है--इसी पर आधारित है इलाज--

आपकी इस रचना ने मुझे से भी यहां कितना कुछ लिखवा लिया--अगर यह कल्पना भी है तो बेहद ज़ोरदार है-

कभी इस पर भी कल्पना कीजिए कि कब ऐसा समाज बनेगा--जिसमें ऐसा सब कुछ न हो!
---रेक्टर कथूरिया ----आराधना टाइम्स

काश वे सब होते तो बन ही जाती चाइना गेट की पंजाब टीम भी

Saturday:01st November 2025 at 02:15 AM मुझे याद है ज़रा ज़रा...! एक दिन डाक्टर भारत भी चल बसे और जल्द ही ओंकार पुरी भी लुधियाना : 1 नवंबर 202...