Thursday, October 10, 2024

अब भी याद है दिल्ली वाली डीटीसी बसों का जादू

एक और सवा रूपए में बन जाया करता था दैनिक बस पास 


चंडीगढ़//मोहाली: 10 अक्टूबर 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा डेस्क)::

सन 1969 में साहिब श्री गुरु नानक देव जी के 500 वर्षीय प्रकाश उत्सव के समारोह चल रहे थे। जगह जगह उत्सव, श्रद्धा और आस्था का माहौल था। उन्हीं दिनों उत्तर भारत को एक महान यूनिवर्सिटी भी मिली। अमृतसर शहर में स्थित गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी की अपनी अलग पहचान और एतिहासिक महत्व सभी जानते हैं। बहुत कम लोग जानते हैं कि इस विश्वविद्यालय को सिखों के प्रथम गुरु श्री गुरु नानक देव जी के 500वें प्रकाशोत्सव के मौके स्थापित करने का एलान किया गया था। उसी वर्ष इसका नींव पत्थर रखा गया था। इसी वजह से ही इसका नाम गुरु साहिब के नाम पर रखा गया है। उनदिनों हालात के मद्देनज़र मैं अमृतसर में था। खालसा कालेज के गेट से गयर्ने एयर अंदर भी आना जाना होता रहता था। वहां से कहीं और जाने का मन भी नहीं था लेकिन इंसानी इच्छा कब पूरी होती है। अक्सर जो सोचो उसके विपरीत हालात बन जाते हैं। 

मेरे बारे में भी परिवार का फैसला कुछ अचानक ही हुआ कि मुझे अब दिल्ली जाना होगा। बार बार जगह बदली के कारणों पर किसी अलग पोस्ट में लिखा जाएगा। अमृतसर से दिल्ली शायद ट्रेन से यह मेरा पहला सफर था। दस या ग्यारह बरस की उम्र रही होगी उस समय मेरी। 

अमृतसर बहुत बड़ा और वंदनीय स्थल है लेकिन दिल्ली के बारे में कहा जाता था कि दिल्ली है दिल हिंदुस्तान का! यह तो तीर्थ है सारे जहान का? यह गीत उन दिनों रेडियो पर भी बहुत बजता था। दिल्ली की चर्चा सुनी थी या किताबों में पढ़ा था लेकिन दिल्ली को अपनी आंखों से पहली बार देखना था। 

ट्रेन के दिल्ली पहुंचते पहुंचते अंधेरा छाने लगा था। रेलवे स्टेशन पर पिता जी लेने आए हुए थे। रेलवे स्टेशन से सीधा घर पहुंचे। घर में मां थी जो बहुत देर बाद मिली थी। उसके ख़ुशी के वो आंसू  मुझे आज भी याद हैं। 

उसके बाद नींद भी महसूस होने लगी। नींद के बावजूद दिल्ली की अखबारों पर एक संक्षिप्त सी नज़र डाली। बुरे से बुरे हालात में भी हमारे घर अखबार आती रही थी। अख़बार का आना कभी बंद नहीं हुआ। हां! पंजाबी की कोई अखबार वहां नहीं थी लेकिन वहां के लोकप्रीज़ अख़बार नवभारत टाईम्स और दैनिक हिंदुस्तान बहुत अच्छे लगे। वे छपाई में रंग बिरंगे अखबार तो नहीं थे लेकिन एक रंग में भी बहुत खूबसूरत लगते थे जैसे किसी समझदार शख्सियत से बातें हो रही हों। 

पंजाब की अखबारों में अभी तक यह छवि महसूस नहीं हुई थी। इनमें नौजवानी जैसा जोश था। लड़कपन वाली छवि भी कह सकते हैं। व्यक्तिगत तौर पर एक दूसरे के खिलाफ लिखना जालंधर की अखबारों का रूटीन बन चुका था। पहले पहल प्रताप, मिलाप और हिंद समाचार में यह सिलसिला तेज़ हुआ था जिसमें कुछ समय बाद पंजाबी अखबार भी शामिल हो गए थे। उन दिनों जालंधर में अजीत, अकाली पत्रिका, कौमी दर्द और जत्थेदार अखबार भी शामिल हो गए थे। हां कामरेड विचारधारा को समर्पित अखबार नवां ज़माना अपनी अलग मस्ती में चला जाता था। इस अख़बार के छवि बहुत गंभीरता वाली थी। 

दिल्ली की अखबारों में पंजाब अखबारों जैसी कोई बात नज़र नहीं आती थी। दिल्ली की अखबारों में छपती सामग्री कुछ अधिक वरिष्ठ किस्म की हुआ करती थी। राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय समझ विकसित हुआ करती थी। इसके साथ ही आर्थिक और समाजिक मुद्दों पर भी चर्चा रहती थी। 

इन अखबारों  के पढ़ते पढ़ते ही शुरू हुआ दिल्ली में घूमने का सिलसिला। यह सब डीटीसी की बसों में सफर करके ही संभव था। आटो रिक्शा या टैक्सी की तो कल्पना भी मुश्किल लगती थी। 

डीटीसी की बस में बैठ कर कभी कभी डबल देकर का मज़ा ही लेते थे। जब दिल्ली में कहीं निकलते तो तेज और इंकलाब जैसी अखबारें बस स्टैंडों पर बिकती नज़र आती खास कर संध्या अखबारें। यह अखबार पांच पैसे में मिल जाया करते थे। एक ही पृष्ठ दोनों तरफ छपा होता था। बाद में दो पृष्ठ भी होने लगे थे। फिर ज़्यादा भी। डबल देकर में बैठ कर उस अख़बार  तो लगता अपने मोबाईल चौबारे बैठे  पलट रहे हों। बस अख़बार पढ़ने के उस शाही अंदाज़ की फीलिंग लेते समय चाय वाली प्याली की कमी खटकती रहती। 

पहले एक रुपया और फिर जल्द ही सवा रुपए से पूरे दिन का पास बना करता था। पहले पहल केवल रविवार और फिर जल्द ही हर रोज़ बनने लगा था। उस समय सत्तर का दशक शुरू हो चुका था। इन बसों का सफर आम जनता के लिए लाइफ लाइन की तरह था। इन बसों से पूरी दिल्ली नहीं तो काफी दिल्ली रोज़ घूमी जाती थी। 

डीटीसी बसों में सफर के लिए एक रुपए वाला वह दैनिक पास बनवाने से एक्सप्रेस बसों में चढ़ने पर पांच पैसे की एक्स्ट्रा टिकट भी अलग से लेनी पड़ती थी जो कि झमेला ही था पर अगर सवा रुपए वाला पास टिकट बना लिया जाता तो यह झंझट नहीं रहता था। इस तरह पूरी दिल्ली बिना कोई दूसरी टिकट लिए घूमी जाती थी। दैनिक पास और मंथली पास का बहुत अच्छा सिस्टम मोहाली चंडीगढ़ में चलती सी टी यू (CTU) की बसों में भी है लेकिन यहां  खरड़ से छह फेस तक दस रूपये की टिकट  बावजूद लेनी  पड़ती है। आती बार भी और जाती बार भी। कुछ अन्य मार्गों पर भी दस या पंद्रह रूपये लगते हैं। 

यही फॉर्मूला बाद में रेलवे ने भी सुपर टिकट वाला MST अर्थात मंथली सीजनल टिकट जारी करते वक्त अपनाया था। उन दिनों अमृतसर दिल्ली के दरम्यान तीन या चार पास बना करते थे। कारोबारी लोग अमृतसर दिल्ली के दरम्यान हर रोज़ सफ़र किया करते थे। टिकेट के लिए लंबी लाइन से भी छुटकारा हुआ रहता था। ये लोग सुबह घर से नाश्ता करके तड़के तड़के दिल्ली के लिए निकलते। दोपहर का भोजन दिल्ली में करते कर रात का भोजन घर लौट कर किया करते। रस्ते वाली चाय उस समय ट्रेन में ही बहुत अच्छी मिलती थी। 

दिल्ली में बहुत शानदार बसें चलती हैं लेकिन फिर भी मन से डीटीसी बसों की याद नहीं जाती। उस समय डीटीसी ही थी दिल्ली वालों की सफर वाली लाइफ लाइन। अगर आपने भी इनमें सफर किया था तो आपको भी याद होगा डीटीसी बसों का जादू। 

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Saturday, September 14, 2024

क्या सचमुच मिलती है यादों के उजालों से रौशनी?

क्यूं नहीं भुला पाते हम ज़िन्दगी की यादें?


चंडीगढ़
//मोहाली: 14 सितंबर 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)

जनाब बशीर बद्र साहिब के यूं तो कई शेयर प्रसिद्ध हुए हैं लेकिन एक शेयर यादों से सबंधित है जो जान जन की जुबां पर चढ़ गया। बशीर साहिब कहते हैं: 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो!

न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए!

बशीर साहिब का यह शेयर ज़िंदगी में एक रुमानियत सी लेकर आता है। इस शेयर   खौफ भी है। इस शाम में अँधेरा छाने का भी यकीन सा है। इस अंधेरे का सामना करने के लिए उन्हें रौशनी की उम्मीद नज़र आती है उस दौर की यादों से जो अब रहा ही नहीं। उस जाते हुए वक़्त  या जा चुके अतीत को एक तरह से वापिस बुलाते हुए वह अपनी महबूबा से कहते हैं कि 

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो! न जाने किस गली में ज़िन्दगी की शाम हो जाए!

अब देखना यह है कि क्या सचमुच यादों से अँधेरी और अकेली ज़िन्दगी में उजाला हो भी जाता है क्या? वैसे तो बुढ़ापे की दस्तक तक से अधिकतर लोग डरने लगते हैं लेकिन शायरों की कल्पना और संवेदना कुछ ज़्यादा ही होती है। वह अँधेरे की कल्पना भी सहजता से कर लेते हैं और उसका  सहजता ज़िंदगी में अगर अंधेरा छा जाए तो बचपन की यादें, किशोर उम्र की यादे, स्कूल की यादें, दोस्तों की यादें, जवानी की यादें---यह सारा सिलसिला बुढ़ापे में ही क्यूं अपना रंग दिखाता है--ज़िंदगी कैसे इतनी प्रभावित हो जाती है इन यादों से....क्या इन का किसी भी किस्म का कोई  लाभ हो सकता है? इनसे होने वाला उजाला केवल कल्पना मात्र होता है या फिर सचमुच उजाले की किरणें रास्तों को रौशनाने लगती हैं!

बचपन, किशोरावस्था, स्कूल, दोस्तों और जवानी की यादें बुढ़ापे में इतने प्रभावशाली क्यों हो जाती हैं, इसका कारण यह है कि ये यादें हमारी ज़िंदगी के सबसे महत्वपूर्ण और संवेदनशील दौर से जुड़ी होती हैं। यह वो समय होता है जब हम सबसे ज्यादा अनुभव करते हैं, सीखते हैं, और हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। जब हम बुढ़ापे में पहुंचते हैं, तो हमारे पास समय होता है और हम उन यादों को फिर से जीने लगते हैं। इन यादों में भावनात्मक और मानसिक जुड़ाव इतना गहरा होता है कि वे जीवन के अंतिम पड़ाव में भी हमारे साथ रहती हैं। गुज़रे हुए उस  सुनहरी दौर को याद करते ही हमारे अंदर एक ऊर्जा भी आती है। विजय और संघर्ष की भावना भी जागती है। हमें फिर से एक नै दुनिया  दिखाई देने लगती है। 

इन गहरी यादों का आध्यात्मिक लाभ भी हो सकता है। वे हमें आत्ममंथन करने का भी अवसर देती हैं, जिससे हम अपने जीवन के अनुभवों को समझ सकते हैं और उनसे सीख भी सकते हैं। यादें हमें यह समझने में मदद करती हैं कि हमने अपने जीवन में क्या खोया और क्या पाया। यह आत्मविश्लेषण हमें आध्यात्मिक रूप से परिपक्व बनने में  तो सहायता करता ही है इसके साथ ही हमें दुनियादारी के जहां रहस्य भी समझ आने लगते हैं। हम धोखे, फरेब दोगले चेहरों को सही वक़्त पर समझ पाने में सफल हो जाते हैं। 

इसके अलावा, गुज़रे हुए वक्त की ज़ेह यादें हमें जीवन की अस्थायित्वता का बोध कराती हैं और यह हमें वर्तमान क्षण में जीने की प्रेरणा दे सकती हैं। यादों के माध्यम से हम अपने जीवन के असली उद्देश्य को पहचान सकते हैं और अपने अंतर्मन से जुड़ सकते हैं। 

इस प्रकार, ये यादें केवल अतीत का प्रतिबिंब नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिक विकास का एक महत्वपूर्ण साधन भी हो सकती हैं। हम  परिवर्तनशील हालात से कर शाश्वत की पहचान करना सीख जाते हैं। शाश्वत में जीना एक महत्वपूर्ण जीवन होता है। 

Sunday, August 18, 2024

जब लक्ष्मी की दूरी इम्तिहान लेती है!

 उस समय घैर्य, सबर और सबूरी की परीक्षा भी होती है 


खरड़
(मोहाली):18 अगस्त 2022: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा):: 

यह कुछ पंक्तियों का वटसैप संदेश जैसा ही था जो अब शायद ईमेल जैसा बड़ा पत्र बनता जा रहा है। इसे मैंने नोट किया था 18 अगस्त 2022 को और शायद उन्हीं दिनों किसी मित्र को भेजा भी था। इसे डिलीट करने का भी मन नहीं किया। संदेश भेजने के बाद इसे सहेजा भी इसीलिए था कि शायद कभी इसे दोबारा पढ़ना पड़े। हालात का जायज़ा हो जाता है पुराने पत्र और मैसेज पढ़ने से। सोचा आज इसे पढ़ कर देखूं कुछ गलत तो नहीं लिखा था। उन दिनों आर्थिक तौर पर भी हालात गंभीर थे। हालत स्वास्थ्य के हिसाब से भी अच्छी नहीं थी और जेब के हिसाब से भी। अब ऐसे में या तो मकार की उम्मीद होने लगती है या फिर किसी शुभचिंतक को बताने की इच्छा भी हो जाती है। ज़िंदगी में कई बार ऐसे वक्त आते हैं जब अस्तित्व खतरे में लगने लगता है। ऐसे में किसी से कुछ  न कुछ कहना ज़रूरी हो जाता है। बहुत सोच कर एक मित्र को समस्या बताई तो उन्होंने तुरंत हमदर्दी भी यहिर की और साथ ही पेटीएम नंबर भी मांग लिया। 

उस समय मैंने लिखा-मैं वैसे भी फॉर्मल नहीं हूँ। कोई औपचारिकता मुझे कभी अच्छी भी नहीं लगती। इसी लिए मुझे लगा आप ने जो पेटीएम नम्बर मांगा है वह शायद भगवत कृपा और भगवत प्रेरणा का ही परिणाम है।

इसके साथ समाजिक दुःख कहने से भी खुद को नहीं रोक पाया। यह सच है कि लेखक वर्ग ही शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाया करता है लेकिन लेखक ही शोषण का शिकार हो जाता है। कभी प्रकाशक उसका शोषण करते हैं तो कभी साहित्यिक कृतियों को बेचने वाले बाजार के कारोबारी और कभी बड़े बड़े आयोजनों के नाम पर बड़े बड़े संगठनों के पदाधिकारी।

फिर भी लेखक आयोजन के लिए इस्तेमाल  होने वाले हाल का किराया देते हैं। चायपानी समोसे का खर्च भी करते हैं। कुर्सियां मंगवाने का खर्च भी करते हैं। अक्सर कहा यही जाता है की यह सब कुछ आयोजन करने वाले संगठन के प्रबंधक ही करते हैं लेकिन अंदर का सच कुछ और ही होता है। 

लेकिन लेखक, पत्रकार और आयोजक साहित्यिक कवरेज करने को आए कलमकारों के लिए कुछ खर्च करना उचित नहीं समझते। देते भी हैं तो बड़े मीडिया घरानों को जिनके पास कोई कमी ही नहीं होती। शोषण भी आम तौर पर पहले से ही शोषितों का होता है। आयोजनों के रिकार्ड को साहित्यिक रिपोर्टिंग करने वाले ही सहेजा करते हैं। इसलिए इन की तरफ विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए बिना उनकी निष्पक्षता पर प्रभाव डाले। लेकिन ऐसा बहुत कम हो पाता है। इस लिए अब बहुत से कार्यक्रमों और आयोजनों पर जाने का मन ही नहीं करता। 

फिर भी आपके फोन से एक नई आशा जगी। बदलते हालात की दस्तक सुनाई दी। इस वक्त गंभीर आर्थिक संकट में हूं लेकिन इसे सब को बताना कभी ज़रूरी नहीं लगा। 

आप सहजता और ख़ुशी से अपने वायदे के मुताबिक कुछ कर सकें तो बहुत अच्छी बात है पर न भी कर सकें तो भी कोई बात नहीं। मन पर बोझ न रखना। इतने सालों में पहली बार ही यह नौबत आई कि मजबूरी सी दिखने लगी। आपके आयोजन में आने से इनकार भी बुरा लग रहा था लेकिन आता हूँ तो आर्थिक मजबूरियां भी हैं। 

बारह दिन के बाद बुखार से उठा हूं। मित्र डाक्टरों से तो फोन पर ही कंसल्ट किया लेकिन दवाएं बहुत महंगी हो गई हैं। दो दिन में करीब 36 हज़ार रुपयों से भी अधिक  की पेमेंट करनी ज़रूरी है। बिजली, इंटरनेट, दूसरे शुल्क, यूनिवर्सिटी और अन्यों की सरकारी फीस इत्यादि।

इस वक्त आप कुछ उधार भी दे सकें तो बहुत मेहरबानी होगी।

जो भी स्थिति हो प्लीज़ एक आध घण्टे में बता ज़रूर दें।

डेढ़ दो घंटे के बाद कुछ राशि फोन पर आ गई। साथ ही मैसेज भी कि अगर स्वास्थ्य ठीक हो तो आयोजन से एक दिन पहले बता दें। गाड़ी भिजवा दी जाएगी। सही समय पर गाड़ी भी भिजवा दी गई। प्रोग्राम भी अटेंड किया। साथ में बेटी भी थी।  एक कैमरा असिस्टेंट भी ले लिया। आती बार फिर से हम तीनों के लिए तीन लिफाफे दे दिए गए। साथ ही लोई के साथ सम्म्मान भी किया गया। 

सोच रहा हूं क्या इस सहयोग सहायता को आयोजनों के रूटीन का नियमित हिस्सा बनाया जा सकता है क्या? कैमरे और कलम की मेहनत को समाज कब मेहनत मानेगा?

Friday, July 5, 2024

बहुत कुछ भूल जाता है लेकिन मोहब्बत का गम याद रहता है!

फिर भी सच्ची बातें कल्पना के आवरण में ही लिखी जा सकती हैं

खरड़ (मोहाली): 05 जुलाई 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

हरकी विर्क विर्क बहुत अच्छी लेखिका भी और बहुत अच्छी इंसान भी। उसके परिवार ने राजनैतिक विचारों के कारण बहुत सा उत्पीड़न भी सहा। इसका असर काफी देर तक उसकी मानसिकता पर भी बना रहा लेकिन वह जल्दी ही सम्भल गई। प्रकृति और अध्यात्म की दुनिया के नज़दीक हो कर उसने ऐसा बहुत कुछ पाया अलौकिक नूर से सराबोर कर दिया। कभी कभी उसके वचन किसी प्रवचन की तरह लगने लगे। एक बार सोशल मीडिया पर उसकी कोई पोस्ट देखी जो सीधा दिल में उतरती गई। उस पर जो कुमेंट लिखा उसकी एक प्रति मैंने यहां भी कहीं संभाल ली। आज पुराने रिकॉर्ड को देखते देखते यह पोस्ट भी सामने आ गई। बहुत कोशिश की की जिस रचना पर यह कुमेंट था वो भी मिल जाए लेकिन वह नहीं मिल सकी। खैर कोशिश जारी रहेगी। जैसे ही वह मूल पोस्ट मिली उसे भी जोड़ा जाएगा इसके साथ। फ़िलहाल तो आप कुमेंट ही पढ़िए।

जी यदि यह कल्पना भी है तो भी यह कहानी-या पोस्ट उन हकीकतों का पता देती है जो हमारे समाज और ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी हैं--वास्तव में लोगों की ज़िन्दगी में इतने दुःख हैं कि वे अपने इन दुखों को खुद ही भूल जाते हैं--भुलाने की लाख कोशिशों के बावजूद ये यादें दिल और दिमाग के किसी कोने में पड़ी रह जाती हैं-- बहुत से चेहरे जहन में रह जाते हैं जिनके नाम और पते तो भूल जाते हैं लेकिन उन चेहरों में अव्यक्त मोहब्बत का संदेश बरबस ही सामने आता रहता है--

जनाब फैज़ अहमद फैज़ साहिब की एक लोकप्रिय गज़ल है जिसका शुभारम्भ कुछ इस तरह से होता है--

दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के!
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के!

सवाल है कितने लोग याद रख पाते हैं--इस हार को--इस जीत को--इस हादसे को--इस गम को---दुनियादारी और रोज़ी रोटी बहुत कुछ भुला देती है--इसमें ही आगे जा कर एक शेयर आता है--

वीराँ है मय-कदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास हैं
तुम क्या गए कि रूठ गए दिन बहार के---
--इस तरह की स्वीकारोक्ति भी सभी के बस में नहीं होती--न ही किस्मत में--

कोई माने या न माने यह उदासी--यह गम उम्र भर पीछा करते हैं--नाम भूल जाते हैं--चेहरे भी भूल जाते हैं--पते भी--स्थान भी--लेकिन मोहब्बत का गम याद रहता है-कभी कभी -यही गम किसी न किस गुस्से में तब्दील भी होता है और कोई ज्वाला जनून बन कर भड़क उठती है--क्रांति के हर नायक और यहाँ तक कि कई बार ज़िंदगी के खलनायक के दिल को भी कभी कुरेदा जा सके तो कुछ इसी तरह की कहानी---सच्ची कहानी मिलेगी--

आगे चल कर फैज़ साहिब आपकी पोस्ट जैसी ही बात तो करते हैं--
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल-फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के---

ज़िंदगी की बेचैनियाँ बहुत कारणों से पैदा होती हैं और कई बार दिल दिमाग में जमा भी होती हैं--बहुत सी बिमारियाँ, बहुत से सकून...बहुत सी मस्तियाँ--इसी तरह की बातों से जुडी हुई हैं-- यह बात अलग है कि हम इस तरह की हकीकतों को कल्पना कह कर पीछा छुड़वा लेते हैं--और कोई आसान रास्ता भी तो नहीं होता---सच्ची बातें कल्पना के आवरण में ही लिखी जा सकती हैं--कई बार तो स्पष्टीकरण भी देना पड़ता है--यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है--यदि कोई नाम या स्थान मिलता जुलता निकल आए तो वह महज़ संयोग ही होगा---इसकी हम कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेते--

आपको इस ज़ोरदार रचना के लिए एक बार फिर हार्दिक बधाई--!

झंडों, विवादों और विचारधाराओं का जाने अनजाने प्रचार करते करते हम इस तरह के पूरी तरह व्यक्तिगत ग़मों को अक्सर सच में भी भूल जाते हैं--!

अंदर ही अंदर खुद को बहादुर भी समझते हैं---कि देखा हमने सब भुला दिया---!

कई लोग खुल कर नहीं रो पाते--वे छुप कर रोते हैं--एक कहावत सी है न--मर्द को दर्द नहीं होता--!

अफ़सोस कि हमारे समाज में सफलताओं के महल मोहब्बत के शवों पर ही खड़े होते हैं-बहुत कम लोग व्यक्तिगत प्रेम को संसार और ब्रहमांड के प्रेम में बदल पाते हैं--शायद यही होती है अध्यात्मिक साधना--- शायद यहीं से शुरू होता है नए जन्मों का खेल और चाहत---हम सोच लेते हैं जो इस जन्म में नहीं मिला--वो अगले जन्म में मिलेगा ही--

ओशो ने भी जन्मों की बाते बहुत अच्छे से की है--!

तिब्बत से जुड़े लोग कई बार मुझे मैक्लोडगंज में मिलते रहे हैं--उनकी थ्यूरी भी दमदार तो है--उनके मेडिसिन सिस्टम का एक विशेष सेक्शन ज्योतिष और जन्म के समय को लेकर ही काम करता है--इसी पर आधारित है इलाज--

आपकी इस रचना ने मुझे से भी यहां कितना कुछ लिखवा लिया--अगर यह कल्पना भी है तो बेहद ज़ोरदार है-

कभी इस पर भी कल्पना कीजिए कि कब ऐसा समाज बनेगा--जिसमें ऐसा सब कुछ न हो!
---रेक्टर कथूरिया ----आराधना टाइम्स

Sunday, June 9, 2024

कुमुद सिंह सिखाती हैं संवेदना और इंसानियत

आज फिर याद आ रही है उनसे पहली मुलाकात 


लुधियाना
: 9 जून 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा):: 

शायद 2018 के अगस्त सितंबर का ही कोई महीना था। लुधियाना के एक देहात नुमा शहरी इलाके में एक आयोजन रखा गया था। थोड़ी ही देर में वहां एक वैन और एक बस आ कर रुकी जहां महिलाओं की एक टोली एक जत्थे की तरह वहां पहुंची थी। उन्हीं में एक कुमुद सिंह भी शामिल थी। वह उनसे मेरी पहली मुलाकात थी। इस मुलाकात में ही लगा कि एक सच्चे इंसान में जो खूबियां होनी चाहिएं वे सभी उनमें मौजूद हैं। उनके चहेरे पर एक चमक थी जो संवेदना के अहसास की थी। शायरी, गीत-संगीत और बराबरी की बहुत सी बातें हुईं। 

उनके लौट जाने के बाद भी उनसे कलम का एक रिश्ता बना रहा। हमें पूरा इंदौर ही नहीं बल्कि पूरा मध्य प्रदेश अपना अपना लगने लगा। फिर एक दिन अचानक देखा वह लखनऊ में हैं। सोशल मीडिया और इंटरनेट का फायदा भी है न कि दूर दराज बैठे किसी भी स्थान को झट से देख सकते हैं। तो उस दिन देखा लखनऊ में कुमुद सिंह तांगा चला रही हैं। मेरी तमन्ना बहुत थी लेकिन यह संभव न हो सका और अब तो लुधियाना में तांगा नज़र ही नहीं आता। तांगा का युग लोकल बसों के आने से ही खत्म होने लगा था फिर थ्री वीलर ऑटो रिक्शा वालों ने भी कसर पूरी कर दी। दिन रात मेहनत मशक्कत करने वालों का एक पूरा वर्ग लगभग समाप्त हो गया। कहां गए वे सभी लोग कुछ पता नहीं। कहाँ गए उनके घोड़े उनका भी कुछ पता नहीं। घोड़े तो किसी न किसी निहंग जत्थे में नज़र आ जाते हैं लेकिन तांगा तो लुप्त ही हो गया। जहां जहां के कस्बों, गांवों और शहरों में तांगा चल भी रहा है वहां भी  तांगा चलाने वाले परिवार बड़ी मुश्किलों में। आते जाते आप किसी भी स्टेशन या इलाके में किसी तांगा चालक को देखें तो उससे उसका हाल चाल पूछने का प्रयास करना। आपको उसकी आँखों में आंसुओं भरा दर्द महसूस हो ही जाएगा। 

कुमुद जी ने अपनी यात्राओं के दौरान रिक्शा चालक के दर्द को भी महसूस किया और तांगा चालक के दर्द को भी। ज़रा पढ़िए उनकी ही एक पोस्ट जो उन्होंने शुक्रवार 7 जून 2024 को दोपहर से कुछ पहले 11:28 पोस्ट की थी। 

स्टेशन पहुंच कर जहां से बस पकड़नी थी वह जगह बमुश्किल एक किमी या उससे कम ही थी । रिक्शे वाले ने कहा, चलिए बहनजी । इतने रुपए दे देना। एक बारगी लगा  पब्लिक ट्रांसपोर्ट में बैठ जाऊँ या पैदल ही चलूँ। फिर इतनी धूप में ये कहाँ मुझे खींच कर ले जाएगा। तभी वो बोला, बहनजी सुबह से कोई सवारी नहीं मिली है । बैठ जाइए, बोहनी हो जाएगी । कई बार समझ में नहीं आता कि जिस रिक्शे को इंसान खींच रहा है उस पर बैठना गलत है या ना बैठने पर  उसके घर चूल्हा नहीं जलेगा, वो गलत है। फिर नज़दीक जाने के लिए रिक्शा पकड़ लेती हूँ और कोई मोल-भाव नहीं करती । रिक्शे का ऊपर का कपड़ा फटा है, चिलचिलाती धूप है लेकिन तेज धूप लगने की शिकायत नहीं करती। उससे क्या शिकायत करूँ।  ज़्यादा चढ़ाई होने पर उतर कर थोड़ा पैदल भी चल लेती हूँ। सबके घर चूल्हा जले , यह ख्वाहिश  रहती है। 

खैर, एक बार लखनऊ गए तो तांगा पर बैठे। फिर चालक ने बताया कि ये जो लगाम है इसमें से बांई तरफ की रस्सी खींचने पर घोड़ा बांई ओर और दाहिना खींचने पर दांई ओर मुड़ता है। ये रस्सी बहुत हल्के से खींचना होती है। अच्छे चालक का घोड़े से एक तरह का रिश्ता बन जाता है फिर दोनों एक दूसरे के इशारे पर चलते हैं। वो कब थका, कब भूखा है मैं समझता हूँ और कितना, किधर मुड़ना है यह घोड़ा समझता है। फिर उसे मारने की ज़रूरत नहीं होती। 

अब पहले जैसी कमाई नहीं होती लेकिन दो रोटी के लिए लगे रहते हैं दिन भर। अब वे नहीं चाहते कि उनकी अगली पीढ़ी का कोई बच्चा यह काम करे फिर भी सिखाते रहते हैं।

लेकिन हम इन मेहनतकश, मज़दूर और मजबूर लोगों के लिए कुछ मानवीयता और संवेदना कभी दिखाएंगे क्या? हम कब पूछेंगे सिस्टम और संसार से कि विकास का नया चेहरा हर बार इन गरीब लोगों का सब कुछ क्यों छीन लेता है? हमें इनकी फ़िक्र कब होगी? 

Thursday, February 1, 2024

कलम को बेचना इतना आसान भी नहीं होता

31st January 2024 at 2:30 AM

लेकिन वक्त ने सिखाया इस कला का सीखना क्यूं ज़रूरी है!

लुधियाना: 31 जनवरी 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::


आज अर्थात 31 जनवरी 2024 सुबह सुबह दो बज चुके थे। जाग भी खुल चुकी थी। रात को लिखते लिखते नींद आ गयी तो सो गया था। सोचा रात का अधूरा पड़ा काम पूरा कर लूं। सर्दी की ठिठुरन कुछ अच्छी भी लग रही थी। पानी का गिलास पिया और पांच मिंट के लिए छत पर जा कर दो चार चक्कर लगाए। पूरी तरह से फ्रेश हो कर नई ताज़गी आ गई थी। नीचे आकर चाय बनाई और लैपटॉप ऑन किया।  चार बजने को थे। रात का अधूरा काम निकाला। एक नज़र डाली तांकि अब सोचा जा सके कि अधूरा काम कहां से शुरू करना है। 

सुबह को वही ख्याल सामने था जिसे रात्रि का अंतिम ख्याल रख कर मैं सो गया था कि चलो सुबह सोचेंगे। जब 2008 में एक प्रसिद्ध टीवी चैनल की नौकरी छोड़ी थी मन ही मन संकल्प किया था कि बस अब और नहीं। बहुत कर ली नौकरी। चैनल या अख़बार मालिकों की मर्ज़ी और विचार के लिए लिखना रोज़ का काम हो गया ठगा। अपनी स्वतंत्र सोच और विचारधारा लुप्त जैसी हो गई थी। रात को सोना और सुबह उठना सबकुछ चैनल के टाइम टेबल को देखते हुए करना होता था। हालांकि वहां साथ में कुछ अच्छे साथी भी थे जिनकी वजह से यह अच्छा भी लगने लगा था। अब भी कभी कभी उनमें से किसी न किसी बात हो जाती है। कुछ लोग अमेरिका और कैनेडा निकल चुके हैं। कुछ लोग दुसरे चैनलों में जा कर सेटल हो गए। 

मुझे ब्लॉग को सक्रिय करने का रास्ता ही ज़्यादा उचित लगा। इनमें वेबसाइट से कुछ अधिक खूबियां भी होती हैं। आसानी काफी लगती है। ब्लॉग चलने भी लगे थे मतलब लोग उन्हें पसंद भी करने लगे। लेकिन इसे रोज़ी रोटी की तरह देखना, समझना और चलाना बिलकुल अलग बात थी। कमाई और पैसा यहाँ भी प्रमुख मुद्दा बन कर सामने आया। लैपटॉप, इसका रखरखाव, मीडिया से सबंधित सॉफ्टवेयर, सबंधित कैमरे बेशक वे मोबाईल के ही हों लेकिन सबके खर्चे ज़रुरी थे। साथ में ज़रूरी था मोबाईल मोबाइल का इंटरनेट और लैपटॉप के लिए वाईफाई। कहीं न कहीं कवरेज के लिए आने जाने  खर्चे भी काम नहीं थे। 

फील्ड की कवरेज के बाद डेस्क पर लौट कर  काम करते करते थकावट भी होती है। चाय कॉफी का मन भी करता है और कभी कभी शाम को जाम का ख्याल भी आता है। खर्चे तो इनके लिए भी चाहिएं। हालाँकि कई बार बहुत से लोग सौगात भी दे जाते हैं लेकिन फिर भी अपना हाथ जगन्नाथ कहा जाता है। 

अब मुख्य सवाल था कि ब्लॉग मीडिया के लिए विज्ञापन देने वाले लोग, प्रायोजक और फाईनांसर कहां से ढूँढें जाएं। सोचने में यह सब अच्छा लगता है-दिन में देखे किसी मधुर सपने की तरह लेकिन वास्तव में यह सब बहुत कठिन होता है। मार्कीटिंग इतनी आसान नहीं होती। बाजार तकरीबन हर रोज़ नई चुनौतियां खड़ी कर देता है। इनको समझे बिना इनका सामना भी संभव नहीं और इन समस्याओं पर विजय भी नामुमकिन। 

इसके बावजूद हर क्षेत्र में सफलता पाने के गुर अक्सर मौजूद रहते हैं। यह बात ब्लॉग मीडिया के लिए भी लागू होती है। यूं तो ब्लॉग मीडिया के आय का प्रमुख स्रोत गूगल एडसेंस बेहद लोकप्रिय है लेकिन प्रमुख ब्लॉग मीडिया के लिए भी स्थानीय स्तर पर भी प्रायोजक और फाइनेंसर ढूंढने के लिए निम्नलिखित स्रोतों का उपयोग किया जा सकता है। 

आपके आसपास के व्यापारी या उद्योगपति भी इस मामले में बहुत लाभदायक साबित हो सकते हैं। इनमें आपके जानकार और नए लोग भी अच्छे रहते हैं।  आप अपने ब्लॉग को उद्योगिक संगठन और व्यापारियों को दिखा सकते हैं जो आपके लेखों और आपके ऑडियंस के साथ संबंधित हो सकते हैं। व्यापारियों के लिए ब्लॉग पर विज्ञापन प्रदान करने, स्पॉन्सर्ड पोस्ट्स लिखने या संबंधित उत्पादों और सेवाओं के बारे में समीक्षा लिखने जैसी संभावित समझौतों को आमंत्रित कर सकते हैं। इनसे अक्सर काफी अच्छी आमदनी हो जाती है और इस मदनी के नियमित लिंक भी बन जाते हैं। 

विज्ञापन नेटवर्क्स भी इस मकसद के लिए काफी अच्छे और लोकप्रिय साबित हो रहे हैं। आप किसी न किसी विज्ञापन नेटवर्क्स के साथ जुड़कर इन विज्ञापनों को अपने ब्लॉग पर प्रदर्शित कर सकते हैं। ये नेटवर्क्स विभिन्न प्रकार के विज्ञापन ऑप्शंस और प्रायोजन प्रदान करते हैं और विज्ञापनों के लिए एक माध्यम के रूप में आपके ब्लॉग का उपयोग करते हैं। आपको अपने ब्लॉग पर नेटवर्क कोड द्वारा विज्ञापन प्रदर्शित करने की आवश्यकता होती है, और फिर नेटवर्क आपको प्रति-क्लिक या प्रति-प्रदर्शन आधार पर भुगतान करेगा।

स्वतंत्र वित्तपोषक पूरी तरह से आपके विचारों और संबंधों पर निर्भर करते हैं। आप अपने ब्लॉग के लिए स्वतंत्र वित्तपोषकों को थोड़ा सा दिमाग लगाने के बाद सहजता से खोज सकते हैं, जो आपके विचारों और उद्देश्यों के समर्थन में रुचि रखते हैं वे आपके आर्थिक सहयोगी भी बन सकते हैं। इन प्रोफेशनल्स द्वारा साधारणत-चिल्ड क्रेटिविटी, पब्लिसिटी, एक्सपोजर और अन्य कार्यक्रमों के रूप में ब्लॉग को आर्थिक रूप से समर्थन किया जा सकता है।

क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म का रिवाज भी आजकल काफी है। क्राउडफंडिंग प्लेटफॉर्म आपको अपने ब्लॉग के लिए धनराशि जुटाने की अनुमति देते हैं। आप एक विशिष्ट लक्ष्य निर्धारित करके अपने ब्लॉग के लिए धन को इकट्ठा करने के लिए अपने पाठकों, प्रशंसकों और अन्य लोगों को आह्वानित कर सकते हैं।

इन स्रोतों का उपयोग करके आप ब्लॉग मीडिया के लिए प्रायोजकों और फाइनेंसरों को  और दूर दराज दोनों क्षेत्रों में खोज सकते हैं। यहां यह महत्वपूर्ण है कि आप अपने ब्लॉग के लक्ष्यों, उद्देश्यों, और आपके ऑडियंस की मांग के आधार पर विचार करें और उसे ध्यान में रखें जब आप प्रायोजकों और फाइनेंसरों की खोज करें।

Saturday, January 13, 2024

तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूं, मेरी उम्र भर की तलाश है!

लोहड़ी के पावन पर्व पर बहुत कुछ याद आ रहा है 

खरड़ में नूरविला के एक बेहद ठंडे कमरे में से सभी के नाम एक पत्र 


खरड़: 13 जनवरी 2024: (रेक्टर कथूरिया//मुझे याद है ज़रा ज़रा)::

लोहड़ी के बहुत से निमंत्रण इस बार भी मिले हैं। आयोजन भी ज़ोर शोर से चल रहे होंगें। इस नूरविला इलाके में जहां इस वक़्त हूं वहां भी अमीरों के एक छोटे से क्षेत्र में लोहड़ी का उत्सव जोशोखरोश के साथ जारी है। आज के आयोजनों में लोहड़ी के पर्व का प्राचीन संदेश तो लुप्त हो चुका है लेकिन हुड़दंग, दिखावा और शोरशराबा जारी है। मैं किसी आयोजन में नहीं गया। बहुत सी उदास और चिंतित करने वाली खबरें सामने हैं। भविष्य क्या होगा समझ नहीं आ रहा। 

इसी बीच "द ट्रिब्यून" समूह के पंजाबी समाचारपत्र पंजाबी ट्रिब्यून के संपादक डा.सवराज बीर ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है। प्रगतिशील लोगों और विचारों को समर्पित पत्रकारिता में उन्होंने बहुत कुछ कर के भी दिखाया। इस अख़बार के साथ बहुत से लोगों की भावनाएं भी जुड़ीं लेकिन आज सब कुछ विचार या भावनाएं तो नहीं होतीं। अख़बार की प्रसार संख्या का मुद्दा भी अहम होता है। बहुत देर पहले ही मीडिया संस्थान कारोबारी बन चुके थे। इस सोच के बिना न खर्चे निकल सकते हैं और न ही कलमकारों के वेतन। ऐसे में कारोबारी सोच अपने बिना कैसे चल सकते हैं अख़बार? इस पर चर्चा जारी है। वाम से जुड़े अख़बार भी लम्बे समय से इसी दाबाव में रहे। बहुत से नाम गिरामी लोगों ने बहुत ही कम वेतन में काम किया। अब भी गुज़ारे लायक वेतन देने के लिए सप्लीमेंटों का सहारा मुश्किल हो गया है। पंजाब में जितना तेज़ी से लिखा और प्रकशित किया जा रहा है उतनी तेज़ी से पढ़ने का रुझान नहीं बढ़ पा रहा।  दक्षिण भर्ती के ज़ेह खूबी उत्तर भारत में अब तक बन ही नहीं पाई। प्रगतिशील लोगों ने डा. सवराजबीर को पंजाब के रवीश कुमार बताते हुए इस पर त्यागपत्र पर क्षोभ व्यक्त किया है। इन क्षेत्रों में जहां उदासी भी है लेकिन कुछ लोगों ने एक तरह से ख़ुशी और संतोष का इज़हार भी किया है। ऐसे माहौल में लोहड़ी के त्यौहार पर इस तरह के कई मुद्दे भी ज़हन में घूम रहे हैं। 

इसी बीच प्रसन्नता की खबर भी है कि पंजाबी ट्रिब्यून की समाचार संपादिका डा.अरविंदर कौर जौहल को पंजाबी ट्रिब्यून के नए संपादक के तौर पर नियुक्त कर दिया गया है। वह फ़िलहाल कार्यकारी संपादक रहेंगी। पत्रकारिता की बाकायदा प्रतिभाशाली छात्र रही डा. अरविंदर कौर ने भी अपनी पढ़ाई लिखे के दौरान ही ज़मीनी हकीकतों को बहुत नज़दीक से देख लिया था। इस संचारपत्र समूह में पहली बार किसी महिला का संपादक पद पर आना भी हम सभी के लिए गर्व की बात है। 

फ़िलहाल लौटते हैं लोहड़ी के आयोजनों पर। कुछ मित्रों ने और कुछ जानकारों ने लोहड़ी के सुअवसर पर अपनी शुभकामनाएं ह्बेजी हैं--अपने स्नेह हबरे संदेश भेजें हैं--हर बार की तरह इस बार भी वही पुराना दोहराव ही है...! जवाब भी लिखना चाहा उसी हिसाब से नकली ख़ुशी से भरा जवाब-नकली उत्साह से भरा जवाब पर बात बन ही नहीं रही... ! नकली और बनावटी बातों को सोचते हुए असली दुःख और दर्द फिर सामने आ जाते हैं। कुछ इस तरह से शुरू किया संदेश:

प्रिय मित्रो!

सम्माननीय मित्रो!

आपको  ही इस दिन की हार्दिक बधाई। 

मित्र आज फिर त्यौहार है जबकि ज़िंदगी में त्यौहार आता ही कब है--बस खुद को भूलने का बहाना ही तो है--!

न त्योहारों में अब वो पहले जैसी जान है--न ही मन में कोई उत्साह बचा है। 

उम्र रेत की तरह हाथों से निकलती जा रही है--एक दिन सांस की डोरी भी टूट जाएगी। 

किसी के पास हमारे अंतिम संस्कार में आने का वक्त भी नहीं होगा..!

कुछ लोग खुश भी होंगें और मन ही मन कहेंगे--अच्छा हुआ मर गया साला--!

बस दुनिया की इस हकीकत का बार बार इसी तरह दोहराव ही तो देखा--!

इस दुनिया से श्मशान अच्छा जो हकीकत तो बताता है---!

भगवान शिव का नज़दीकी स्थान शमशान आज भी शांति देता है..!

मन था आज श्मशान में जा कर किसी चिता की आग में इस दुनिया की हकीकत को देखने का फिर से  प्रयास करें लेकिन वहां तक जाने की आज हिम्मत नहीं हो रही!

शायद वही वक्त नज़दीक आ रहा है जब चार लोग मिल कर इस बोझ को वहां तक पहुंचाते हैं..हम जैसे लोगों के लिए शायद वही होता है असली त्यौहार--लोहड़ी हो या दीपावली--!

बाकी ज़िंदगी तो बस उस शायरी जैसी ही है जिसे जनाब कृष्ण बिहारी नूर साहिब ने बहुत ही खूबसूरती से लिखा:

ज़िंदगी से बड़ी सज़ा ही नहीं!

और क्या जुर्म है-पता ही नहीं!

इतने हिस्सों में बंट गया हूँ मैं 

मेरे हिस्से में कुछ बचा ही नहीं 

ज़िंदगी मौत तेरी मंज़िल है

दूसरा कोई रास्ता ही नहीं

जिसके कारण फ़साद होते हैं 

उसका कोई अता-पता ही नहीं 

कैसे अवतार कैसे पैगंबर 

ऐसा लगता है अब ख़ुदा ही नहीं 

ज़िंदगी अब बता कहाँ जाएँ

ज़हर बाज़ार में मिला ही नहीं 

सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे 

झूठ की कोई इँतहा ही नहीं 

धन के हाथों बिके हैं सब क़ानून 

अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं 

चाहे सोने के फ्रेम में जड़ दो

आईना झूठ बोलता ही नहीं 

अपनी रचनाओं में वो ज़िन्दा है 

‘नूर’ संसार से गया ही नहीं 

             - कृष्ण बिहारी 'नूर' बहुत पहुंचे हुए शायर रहे आज भी उनका नाम है। 

फ़िलहाल तो लोहड़ी का त्यौहार फिर ऐसे ही हालात में आया है जिसे पंजाबी में कुछ यूं कहा जाता है--

लोहड़ी वाली रात लोकी बालदे ने लोहड़ीयां!

साडी काहदी लोहड़ी--अक्खां सजनां ने मोड़ीयां!

दुनिया तो फरेबों से भरी है इसलिए अब दुनिया से इश्क हो भी तो कैसा हो--चलो फिर से कलम के साथ ही इश्क करें--देश और देश की मासूम जनता के साथ इश्क करें वही बेचारी मासूम जनता जिसे हर चुनाव में हर दल छल कर चला जाता है।  

वही जनता जिसे आज़ादी के सात आठ दशकों के बाद भी कभी निशुल्क इलाज  का लोलीपोप दिया जाता है--कभी निशुल्क बिजली कई--कभी मुफ्त अनाज का--लेकिन कोई उसे उसके पाँव पर खड़ा करने को तैयार नहीं--पत्रकार भी मुफ्त सफ़र और मुफ्त इलाज तक नहीं पा सके। 

आओ इस हालत को बदलने के लिए कलम उठाएं--कलम के धर्म और कलम के फर्ज़ को याद करते हुए कलम से ही कहें--

तेरा इश्क है मेरी आरज़ू, तेरा इश्क है तेरी  आबरू

तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूं, मेरी उम्र भर की तलाश है

           दिल इश्क, जिस्म इश्क और जान इश्क है

           ईमान  की जो पूछो तो  ईमान इश्क है

तेरा इश्क मैं कैसे छोड़ दूं, मेरी उम्र भर की तलाश है!

शायद अपने सिर पर कलम के धर्म का जो कर्ज़ है उसे उतरने में कुछ तो सफल हो सकें--!

ज़रा सोचना मित्र>

स्नेह और सम्मान के साथ--

रेक्टर कथूरिया 

जनाब कृष्ण बिहारी नूर जी की झलक देखिए ज़रा यहां साथ ही इस लिंक को भी सुनिए देखिए जनाब--बहुत गहरी बातें हैं..

अब भी याद है दिल्ली वाली डीटीसी बसों का जादू

एक और सवा रूपए में बन जाया करता था दैनिक बस पास  चंडीगढ़ // मोहाली : 10 अक्टूबर 2024 : ( रेक्टर कथूरिया // मुझे याद है ज़रा ज़रा डेस्क ) :: सन...